My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

traffic jam : silent killer

जानलेवा जाम बड़ी चुनौती

                                                           पंकज चतुर्वेदी

 सोमवार को एक घंटा पानी क्या बरसा, दिल्ली-जयपुर मार्ग कई घंटे तक जाम रहा, बिल्कुल वैसे ही जैसा एक महीने पहले हुआ था। घुटनों तक पानी, फंसे वाहन, हताश-बीमार लोग और बच्चे। सब कुछ अनियंत्रित यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा से असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। ‘‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक दुनियाभर में 33 लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण के शिकार होते हैं। यही नहीं सड़कों में बेवहज घंटों फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए रोज सड़कों पर ‘‘रोड रेज’ के तौर पर बहता खून दिखता है। यह हाल केवल देश की राजधानी के ही नहीं है, सभी छह महानगर, सभी प्रदेशों की राजधानियों के साथ-साथ तीन लाख आबादी वाले 600 से ज्यादा शहरों-कस्बों के हैं। दुखद है कि दिल्ली और कोलकता में हर पांचवा आदमी मानसिक रूप से अस्वस्थ है। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि बीते दो दशकों के दौरान देश में आटोमोबाइल उद्योग ने बेहद तरक्की किया है और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया है। यह किसी विकासशील देश की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है कि वहां संचार व परिवहन की पहुंच आम लोगों तक हो। विडंबना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई व निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया। रही-सही कसर बैंकों ने आसान कर्ज ने पूरी कर दी और अब इंसान दो कदम पैदल चलने के बनिस्पत दुपहिया ईधन वाहन लेने में संकोच नहीं करता है। असल में सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे लोग इस खतरे से अंजान ही हैं कि उनके बढ़ते तनाव या चिकित्सा बिल के पीछे सड़क पर रफ्तार के मजे का उनका शौक भी जिम्मेदार है। शहर हों या हाईवे-जो मार्ग बनते समय इतना चौड़ा दिखता है, वही दो-तीन सालों में गली बन जाता है। यह विडंबना है कि महानगर से ले कर कस्बे तक और सुपर हाईवे से लेकर गांव की पक्की हो गई पगडंडी तक, सड़क पर मकान व दुकान खोलने व वहीं अपने वाहन या घर की जरूरी सामन रखना लोग अपना अधिकार समझते हैं। दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैरकानूनी है, लेकिन सबसे ज्यादा सड़क घेर कर वाहन खड़ा करने का काम पटियाला हाउस अदालत, नीति आयोग या साउथ ब्लाक के बाहर ही होता है। जाहिर है कि जो सड़क वाहन चलने को बनाई गई उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही। यातायात जाम का बड़ा कारण सड़कों की त्रुटिपूर्ण डिजाइन भी होता है, जिसके चलते थोड़ी सी बारिश में वहां जलभराव या फिर मोड़ पर अचानक यातायात धीमा होने या फिर आए रोज उस पर गड् ढे बन जाते हैं। पूरे देश में सड़कों पर अवैध और ओवरलोड वाहनों पर तो जैसे अब कोई रोक है ही नहीं। पुराने स्कूटर को तीन पहिये लगा कर बच्चों को स्कूल पहुंचाने से ले कर मालवाहक बना लेने या फिर बमुश्किल एक टन माल ढोने की क्षमता वाले छोटे स्कूटर पर लोहे की बड़ी बॉडी कसवा कर अंधाधुंध माल भरने, तीन सवारी की क्षमता वाले टीएसआर में आठ सवारी व जीप में 25 तक सवारी लादने फिर सड़क पर अंधाधुंध चलने जैसी गैरकानूनी हरकतें कश्मीर से कन्याकुमारी तक स्थानीय पुलिस के लिए ‘‘सोने की मुरगी’ बन गए हैं। देश भर में स्कूलों व सरकारी कार्यालयों के खुलने और बंद होने के समय लगभग एक समान है। इसका परिणाम हर छोटे-बड़े शहर में सुबह से सड़कों पर जाम के रूप में दिखता है। ठीक यही हाल दफ्तरों के वक्त में होता है। सबसे बड़ी बात बड़े शहरों में जो कार्यालय जरूरी ना हों, या राजधानियों में-जिनका मंत्रालयों से कोई सीधा ताल्लुक ना हों-उन्हें सौ-दो सौ किलोमीटर दूर के शहरों में भेजना भी एक परिणामकारी कदम हो सकता है। इससे नए शहरों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे और लोगों का दिल्ली की तरफ पलायन भी कम होगा। सबसे बड़ी बात, जितना छोटा शहर उतना ही काम के लिए जाने में परिवहन में समय कम और इसका सीधा अर्थ पर्यावरण संरक्षण, मानसिक व शारीरिक स्वास्य की रक्षा।

रविवार, 28 अगस्त 2016

The soul of Indian Islam is Sufism which needs to be save

 अब  सूफी-सौहार्द है कट्टरपंथियों के निशाने पर 

                                                                                                                           पंकज चतुर्वेदी
मुंबई की हाजी अली दरगाह में  भीतर तक महिलाओं के जाने केो उनका मौलिक अधिकार बताने वाले अदालती के आदेश के बावजूद कुछ कठमुल्ले बड़े ही षातिराना अंदाज में ऐसी मजारों पर षरीयत के नाम पर फरमान जारी कर इसे धार्मिक मामलों पर बेवजह दखल बता रहे हैं। जब देश में पर्सनल लॉ के अलावा कहीं षरीयत का पालन नहीं होता है तो लोक-मान्यता, आस्था के केंद्रों पर शरीयत के नाम पर औरतों पर पाबंदी लगाना कहां तक लाजिमी है। हालांकि शिया समुदाय के गुरू कल्बे जब्बाद ने कई साल पहले औरतों को दरगाह पर जाने से मना करने को गैरइस्लामी बताया था।  जबकि औरतों को वहां जाने से रोकने की हिमायत करने वाले हदीस के उस कानून का हवाला दे रहे हैं जिसमें औरतों के कब्रिस्तान पर जाने को रोका गया है और वे मजार-दरगाह को कब्रिस्तान कह रहे हैं। पाबंदी की हिमायत करने वाले अब कह रहे हैं कि रोक दरगाह को छूने पर है, दूर से दुआ करने पर कहीं पाबंदी नहीं है। वास्तव में यह महज मुसलमनों का आंतरिक मामला नहीं है, यह वाकिया एक चेतावनी है देश की साझा-संस्कृति से भयभीत लोगों की साजिशों के प्रति।
यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि भारत में इस्लाम सहिष्‍णुता, सौहार्द और सूफीवाद के जरिए आया था। दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया हो या फिर अजमेर या लखनउ के पास देवा शरीफ या किसी सुदूर कस्बे की छोटी सी मजार ;  हारमोनियम, बैंजो पर गीत-कव्वाली, हिंदू पूजा पद्धति की तरह हाथ जोड कर प्रसाद चढाते सभी धर्म के लोग भारत में इस्लाम की पहचान रहे हैं। मुहर्रम के ताजयिो में मीठा जल चढन और ताबिज बंधवाने को लेाग अपने पूरे साल की सुरक्षा की गारंटी माननते रहे हैं। मुंबई की हाजी अली व माहिम दरगाह में जिस तरह औरतों के दर्शन करने पर रोक लगाने की हिमायत अदालती आदेश के बावजूद भी हो रही है, उससे साफ है कि अब कठमुल्लों ने उन स्थानों पर धर्म के नाम पर तालीबानी फरमान जारी करना चाहते  हैं जो भारत के सांप्रदायिक -सदभाव की मिसाल रहे हैं। यह भी जान लें कि यह मसला अकेले भारत का नहीं है, पाकिस्तान में भी इसी तरह दो किस्म के इस्लाम की टकराव है। सिंध, कश्मीर जैसे इलाकों में सूफीवाद का जोर है तो षेश में कट्टरपंथियों का। वहां सिंधी खुद को शोषित महसूस करते हैं क्योंकि सत्ता में बड़ी संख्या में बहावी किस्म के लोग हैं।
मुंबई हमले के समय भारत अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर यह दावा करता रहा था कि भारत का कोई भी मुसलमान आतंकवादी गतिविधियों में षामिल नहीं है और हमारे यहां होने वाल सभी हरकतों में पाकिस्तानी शामिल होते हैं । ठीक उसके बाद आईएसआई ने भारत के युवाओं को गुमराह कर आतंकवाद के रास्ते पर मोड दिया। रियाज भटकल व आईएम उसका प्रमाण है। यह भी सही है कि लश्कर अब भारत के स्थानीय लोगों को मोहरा बना कर ही अपना खेल खेल रहा है। इस बात को भी गौर करना होगा कि आतंक के खेल में शामिल युवा न तो दाढ़ी, पजामा वाले कट्टर मुसलमान हैं और ना ही उनकी पाकिस्तान के प्रति कोई श्रद्धा है। वे क्लीन शेव, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग से आए हैं। ऐसे गुमराहों को धर्म के बनिस्पत गुजरात या ऐसे ही वीभत्स दंगों के नाम पर बरगलाया जाता है। जान कर आश्चर्य होगा कि गुजरात के कच्छ इलाके तक में तबलीगी जमात और आहले हदीस तंजीमों के मदरसे है। और इनमें कश्मीर से युवा पढ़ने आते हैं। इन्हीं में से कुछ असामाजिक तत्वों के हाथों की कठपुतली बन कर देश-विरोधी हरकतें करते हैं। सफदर नागौरी का संगठन ‘सिमी’ भी पढ़े-लिखे लोगों का मजमा था। एक बात बड़ी चौंकाने वाली है कि हमारे देश में आतंकवादी गतिविधियों में पकड़े गए मौलवी, धर्म प्रचारक या युवा अधिकांश बहावी विचारधारा में पूरी तरह पगे-बढ़े हैं। ये लोग इस्लाम के हिंदुस्तानी स्वरूप यानी सूफी, मजार, ताजिये आदि के घोर विरोधी होते हैं। इन लोगों का मानना है कि पैगंबर देवदूत तो है। लेकिन उनकी पूजा नहीं की जा सकती। देवबंदी जमात के तबलीगी अनुयायी लंबी दाढ़ी, सिर पर पगड़ी और सफेद चोले से पहचाने जाते हैं। जिस इंदौर में  दंगे होते रहते हैं वहां कई साल पहले तक मुहर्रम के ताजियों के समय यह भंापना मुश्किल होता था कि यह पर्व हिंदुओं का है या मुसलमानों का। असल में हिंदुस्तान में इस्लाम के स्थापित होने और उसके देश की आजादी के आंदोलन से ले कर शिक्षा, विकास में षामिल रहने का मूल कारण उसकी मिली-जुली परंपरा ही थी। जान कर आश्चर्य होगा कि भारत के केरल में इस्लाम हजरत मुहम्मद साहब के जीवनकाल में ही आ गया था और आज भी दुनिया की सबसे पुरानी दूसरे नंबर की मस्जिद भारत में ही है। उस मस्जिद का स्थापत्य केरल की स्थानीय संस्कृति के अनुरूप ही है। भारत का मुसलमान गीत-संगीत, अभिनय में शीर्ष  पर है, लेकिन कट्टरपंथी इससे नाखुश हैं।
भारत में 19 करोड़ मुसलमानों में से कोई दो तिहाई बरेलवी हैं। इस मत के लोग स्थानीय संस्कृति व विचारधारा से प्रभावित हो कर इस्लाम की पद्धति का पालन करते हैं। इन लोगों के लिए पैगंबर पूजनीय है और मजार, कव्वाली, सूफी, रहस्यवाद, संगीत में उनकी आस्था है। 19वीं सदी में उत्तर प्रदेश के दो शहरों- देवबंद और बरेली से इस्लाम की दो विचारधाराओं का जन्म हुआ। दोनों ने इस्लाम की व्याख्या अपने-अपने तरीके से करना प्रारंभ किया। बात टकराव तक पहुंच गई और आज भी यदा-कदा दोनों मतों को मानने वाले लड़ते-भिड़ते रहते हैं। बरेलवी यह सवाल खड़ा करते हैं कि भारत में हो रहे आतंवादी हमलों को इस्लामिक आतंकवाद क्यों कहा जाता है? उसे बहावी-आतंकवाद कहना चाहिए। कहने को देश में बरेलवियों की बहुतायत है, लेकिन पैसे के नाम देवबंदी मजबूत हैं और इसी ताकत से वे देश में मस्जिदों पर कब्जे की मुहिम चलाए हुए हैं।’
देश में ज्यादातर बरेलवी मस्जिदें जर्जर हालत में हैं। कट्टरपंथी इनकी हालत सुधारने के नाम पर इमदाद देते हैं, फिर धीरे से अपना मौलवी वहां बैठा देते हैं। इस प्रकार सूफीवाद के समर्थकों की जगह कट्टरपंथी जम जाते हैं। हालांकि अब देवबंदी जुलूस-जलसे व फतवे निकाल कर खुद को खून-खराबे और आतंकवादी घटनाओं का विरोधी सिद्ध करने में जुट गए हैं। लेकिन इस बात को मानना ही होगा कि सन 1941 में लाहौर में मौलाना मौदूदी द्वारा स्थापित जमात-ए-इस्लामी और उससे प्रभावित तबलीगी, अहले हदीस आदि द्वारा इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्या से युवाओं को गुमराह होने का उत्प्रेरक मिलता रहता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बहावियों व देवबंदियों ने अंग्रेजों के खिलाफ खासा मोर्चा लिया था। प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘ गाड्स टेरेरिस्ट: दि बहावी कल्ट एंड दि हिडेन रूट्स आफ मार्डन जेहाद’’ के लेखक चार्ल्स एलन का कहना है कि तालीबान का लगभग प्रत्येक प्रमुख सदस्य देवबंदी मदरसे में पढ़ा है। पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि देवबंदी नजरिया मूलतः अलगाववादी है और समाज को दो तरह से तोड़ता है - एक तो मुसलमानों में फूट पैदा करता है और दूसरे गैर-मुसलमानों के बीच दरार पदा करता है।
यह देश के मुस्लिम नेतृत्व की त्रासदी है कि वह युवा पीढ़ी को सहिष्णु, सूफी इस्लाम की ओर मोड़ने में बहुत हद तक असफल रहा है। बहावी और देवबंदियों का असली संकट पहचान को ले कर खतरा है, जिसका सामाजिक हल संभव है। काश, ऐसा हो पाता तो एक बड़े वर्ग की उर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल हो पाता। मुंबई की हाजी अली दरगाह का फैसला महज औरतों या इस्लाम के लिए नहीं बल्कि भारत की साझा संस्कृति की नीव को मजबूत करने का एक सकारात्मक प्रयास है।


गुरुवार, 25 अगस्त 2016

scorpine leak : worst example of business-war

व्यापारिक ढाह की बानगी है स्कॉर्पीन पनडुब्बी लीक

                                                                  पंकज चतुर्वेदी
भारत की सीमाएं बर्फीले पहाड़, दुर्गम घाटियों, मरूस्थल, गहरे समुद्र और ढेर सरे दुश्मनों से घिरी हुई हैं। हमारे जांबाज सैनिकों के बदौलत उसकी निगहबानी उतना कठिन काम नहीं है जितना कि प्रतिरक्षा के लिए अनिवार्य आयुध सामानों की खरीद। आजादी के बाद से हमारे रक्षा सौदे विवादों में रहे। इससे उछले छींटों से प्रधानमंत्री की कुर्सी भी नहंी बच पाई। गत एक दशक के दौरान तो रक्षा सौदे इतने बदनाम व संवेदनशील हो गए कि अफसर इसमें हाथ उालने से ही बचते रहे। हालांकि विदेशी कंपनियों के सहयोग से पहले ब्रहमोस और उसके बाद स्कॉर्पीन पनडुब्बी का भारत में ही उत्पादन ऐसे प्रयाग रहे हैं जिसके चलते रक्षा उपकरणेां की खरीद में लिप्त महकमों में भरोसा जाग्रत हुआ। इसी बीच आस्ट्रेलिया के एक अखबार ‘‘ द आस्ट्रेलियन’’ ने भारतीय नौसेना और फ्रांसीसी कंपनी डीसीएनएस के बीच हुए स्कॉर्पीन पनडुब्बी समझौते की जानकारियांे के कोई बाईस हजार पन्ने सार्वजनिक कर दिए। इन दस्तावेजों में कई बेहद संवेदनशील और गोपनीय मसले हैं जो पनडुब्बी की मारक क्षमता और कई तकनीकी खूबियों पर प्रकाश डालते हैं। इसमें काई षक नहीं कि इस खुलासे से भारत की समुद्री प्रतिरक्षा की येाजना, फ्रांसिसी कंपनी की विश्वसनीयता पर अमिट धब्बा लगा है, लेकिन असल खेल तो आस्ट्रेलिया में खेला गया है और उसका असल उद्देश्य आस्ट्रेलियाई सरकार के इसी साल अप्रैल मंे किए गए ऐसी ही पनडुब्बी से संबंधित एक सौदे को पलीता लगाना था।
भारत सरकार ने फ्रांसीसी शिप बिल्डर डीसीएनएस के साथ सन 2005 में साढे तीन अरब अमेरिकी डॉलर का सौदा किया था जिसके तहत बनने वाली कुल छह पनडुब्बियों में से पहली आईएनएस कलवरी इस समय मुंबई के मझगांव डॉक में बनाई जा रही है। अखबार में लीक हुई जानकारी में पनडुब्बी किस फ्रीक्वेंसी को पकड़ती है, वह अलग अलग स्पीड के दौरान किस तरह का शोर करती है, उसकी गहराई क्षमता, रेंज और मजबूती जैसी बातें शामिल है। पनडुब्बी पर मौजूद क्रू किस जगह से सुरक्षित बात कर सकता है ताकि उसकी बातचीत दुश्मन की पकड़ में ने आए। मैग्नेटिक, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक और इंफ्रा-रेड डाटा और साथ ही पनडुब्बी के तारपीडो लॉन्च सिस्टम और कॉम्बैट सिस्टम की खासियतें, पेरिस्कोप के लिए किस तरह की रफ्तार और स्थिति की जरूरत होती है, शोर को लेकर विवरण और पनडुब्बी के पंखे और रेडिएशन के शोर के स्तर जब पनडुब्बी सतह पर होती है, ऐसे तथ्य भी उजागर हुए हैं। इसमें कोई षक नहीं कि ऐसी जानकारियां सार्वजनिक होने से हमारे दुश्मन इसकी काट खोजने में प्रयास कर सकजे हैं या सतक््र हो सकते हें, लेकिन यह भी तय है कि अंतरराश्ट्रीय बाजार में यह जानकारियां होती ही हैं। इस तरह की सबमेरिन मलेशिया, चिली और ब्राजील के पास हैं । सो यह मान लेना कि हमारी पनडुब्बी बेकार हो गई या प्रभावी नहीं रही, बेमानी है। जब तक हम भारत में खुद स्वदेशी तकनीक से पनडुब्बी नहीं बनाते तब तक जानकारियों के लीक होने या सार्वजनिक होने का ख़तरा मौजूद रहेगा.। सबसे बड़ी बात युद्ध में मशीन से ज्यादा व्यक्तिगत षौर्य व नीति कौशल काम आता ह जिसकी भारत में कोई कमी नहीं है।
बहरहाल सामरिक दृश्टि से भले ही इस लीक का ज्यादा असर भारत पर ना हो, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में दस्तावेजों का लीक होना ज्यादा चिंता की बात है। भारत का मानना है कि यह लीक फ्रांसीसी शिप बिल्डर डीसीएनएस के कंप्यूटरों से  हुआ है, जबकि भारत इसका आरोप डीसीएनएस पर मढ़ रहा है। फिलहाल अनुमान यह है कि दस्तावेजों की यह चेारी सन 2011 के आसपास षुरू हुई थी और इसमें फा्रंसिसी सेना का एक पूर्व अधिकारी , जो कि इन दिनों डीसीएनएस का ठेकेदार है, ने यह कांड किया है। यह तो जांच से पता चलेगा कि लीक कहां से हुआ व इसका असल इरादा क्या था।, ंलेकिन गौरतलब है कि आस्ट्रेलियाई मीडिया में यह भी खबर तैर रही है कि इसी अप्रैल में ‘‘केनबेरा’’ ने इसी फ्रांसीसी कंपनी को 50 अरब डालर का 12 षार्टफिन बरकुडा ए-1 पनडुब्बी का आदेश दिया था। हालांकि यह पनडुब्बी का डिजाईन व क्षमता भारत वाली से अलग है, लेकिन वहां कतिपय लॉबी फ्रांस को यह ठेका देने की जगह किसी अन्य कंपनी के लिए लॉबिंग कर रही थी और उन्हीं लोगों ने हैकिंग के जरिये इन दस्तावेजों को सार्वजनिक किया है।  लेकिन इस खुलासे के बाद आस्ट्रेलिया का रक्षा मंत्रालय फ्रांस की कंपनी की गोपनीयता बरकारार रखने की व्यवस्था पर उंगली उठा रहा है। याििन एक खुलासे से कई देशों के बीच आपसी संबंधो ंपर षक के बादल छा गए हैं। यह भी सब जानते हें कि आस्ट्रेलिया में आईएसआई इतना मजबूत नहीं है कि भारत के खिलाफ इतना बड़ा लेख कर ले, लेकिन समुद रक्षा के मामले में चीन की साजिश को नजरअंदाज नहीं किया जा कसता। चीन वैेसे भी ब्रहमोस के प्रयोग से खफाा है और उससे ज्यादा उसकी नाराजी इस भारतीय उत्पाद को वियेतनाम द्वारा खरीदने की संभावना से है।
वैसे इस पूरे ख्,ाुलासे से सबसे बड़ा संकट तो 380 से ज्यादा साल पुरानी कंपनी ‘‘डायरेक्शन देस कन्स्ट्रक्शन एट आर्मेस नवेल्स’’ या डीसीएएन पर मंडरा रहा हे। इस कंपनी के 10 देशों में कार्यालय है व कोई 13 हजार कर्मचारी इसमें काम करते हैं। हाल ही में इस कंपनी ने जर्मनी थायसेनउन समूह, जापान के मित्सुबिसी व कावासाकी से मुकाबला कर नार्वें और पौलेंड में भी बड़े ठेके पाए थे। यदि यह बात सामने आ जताी है कि कंपनी रक्षा तकनीक की गोपनीयता बना कर रखने में सक्षम नहीं है तो विश्वसनीयत के संकट के चलते उसका ढांचा गिर सकता है। अब कंपनी भी कह रही है कि यह लीक ‘‘ वित्तीय छद्म-युद्ध’’ का हिस्सा है और इसमें कई प्रतिद्वंदी कंपनियों की साजिश हो सकती है।
बहरहाल भातर के लिए यह चिंता की बात तो है, लेकिन अभी भी हमारे पास वक्त है कि षेश बची पांच पनडुब्ब्यिों में लीक हो गई जानकारी से अलग खासियतों का समावेश किया जा कसता हे। यह भी सोचने की बता है कि यदि यह महज व्यापारिक रंजिश है तो इसका गलत लाभ आतंकवादी भी सहजता से लगा सकते हें व इससे पैदा हुई गलतफहमी ुदनिया को व्यापक युद्ध में झोंक सकती है। अतः पूरे मामले की जांच व आरेपी को उजागर करना भी जरूरी है।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

Catch them young, but when ?

बाजार में खेल, खेल का बाजार

                                                                                                                                     पंकज चतुर्वेदी
जिस समय पूरा देश पीवी सिंधु पर चार करोड़ रूप्ए व ढेर सारा प्यार लुटा रहा था, तभी पटियाला की खेल अकादेमी की एक हेड बाल खिलाडी पूजा के लिए महज 3750 रूपए बतौर होस्टल की फीस ना चुका पाने का दर्द असहनीय हो गया था और उसने आत्महत्या कर ली थी। उससे दो दिन पहले विभिन्न राज्य सरकारों की तर्ज पर मध्यप्रदेश षासन कुश्ती में देश का नाम रोशन करने वाली साक्षी मलिक को दस लाख रूपए देने की घोशणा कर रहा था, तभी उसी राज्य के मंदसौर से एक एक ऐसी बच्ची का कहानी मीडिया में तैर रही थी जो कि दो बार प्रदेश की हॉकी टीम में स्थान बना कर नेशनल खेल चुकी है, लेकिन उसे अपना पेट पालने के लिए दूसरों के घर पर बरतन मांजने पड़ते हैं। सफल खिलाड़ी व संघर्शरत या प्रतिभावान खिलाड़ी के बीच की इस असीम दूरी की कई घटनाएं आए रोज आती है, जब किसी अंतरराश्ट्रीय स्पर्धा में हम अच्छा नहीं करते तो कुछ व्यंग्य, कुछ कटाक्ष, कुछ नसीहतें, कुछ बिसरा दिए गए खिलाड़ियों के किस्से बामुश्किल एक सप्ताह सुर्खियों में रहते हैं। उसके बाद वही संकल्प दुहराया जाता है कि ‘‘कैच देम यंग’’ और फिर वही खेल का ‘खेल’ षुरू हो जाता है।
एरिक प्रभाकर। यह नाम कई के लिये नया हो सकता है लेकिन अगर आप भारतीय ओलंपिक के इतिहास को खंगालेंगे तो इस नाम से भी परिचित हो जाएंगे। 23 फरवरी 1925 को जन्में प्रभाकर ने 1948 में लंदन ओलंपिक में भारत की तरफ से 100 मीटर फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उन्होंने 11.00 सेकेंड का समय निकाला और क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे। महज षुरू दशमलव तीन संेकड से वे पदक के लिए रह गए थे। हालांकि  सन 1944 में वे 100 मीटर के लिए 10.8 सेकंड का बड़ा रिकार्ड बना चुके थे। वे सन 1942 से 48 तक लगातार छह साल 100 व 400 मीटर दौड के राश्ट्रीय चेंपियन रहे थे।  उस दौर में अर्थशास्त्र में एमए, वह भी गोल्ड मेडल के साथ, फिर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षा के लिए रोड्स फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय, यही नहीं आजाद भारत की पहली आईएएस में चयनित श्री एरिक प्रभाकर की किताब  ‘द वे टु एथलेटिक्स गोल्ड’ सन 1994 में आई थी व बाद में उसका हिंदी व कई अन्य भारतय भाशाओं में अनुवाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापा। काश हमारे खेल महकमे में से किसी जिम्मेदार ने उस पुस्तक को पढ लिया होता। उन्होंने बहुत बारीकी से और वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि भारत में किस तरह से सफल एथलीट तैयार किये जा सकते हैं। उन्होंने इसमें भौगोलिक स्थिति, खानपान चोटों से बचने आदि के बारे में भी अच्छी तरह से बताया है। भारतीय खेलों के कर्ताधर्ताओ हो सके तो कभी यह किताब पढ़कर उसमें दिये गये उपायों पर अमल करने की कोशिश करना। यदि वह पुस्तक हर खिलाड़ी, हर कोच, प्रत्येक खेल संघ के सदस्यों को पढने और उस पर ईमादारी से मनन करने को दी जाए तो मैं गारंटी से कह सकता हूं कि परिणाम अच्छे निकलेंगे। कुछ दशक पहले तक स्कूलों में राश्ट्रीय खेल प्रतिभा खोज जैसे आयोजन होते थे जिसमें दौड, लंबी कूद, चक्का फैक जैसी प्रतियोगिताओं में बच्चों को प्रमाध पत्र व ‘सितारे’ मिलते थे। वे प्रतियोगिताएं स्कूल स्तर, फिर जिला स्तर और उसके बाद राश्ट्रीय स्तर तक होती थीं। तब निजी स्कूल हुआ नहीं करते थे या बहुत कम थे और कई बार स्कूली स्तर पर राश्ट्रीय रिकार्ड के करीब पहुंचने वाली प्रतिभाएं भी सामने आती थीं। जिनमें से कई आगे जाते थे। ऐसी प्रतिभा खेाज की नियमित पद्धति अब हमारे यहां बची नहीं है। कालेज स्तर की प्रतियोगिताओं में जरूर ऐसे चयन की संभावना है, लेकिन चीन, जापान के अनुभव बानगी हैं कि ‘‘केच देम यंग’’ का अर्थ है कि सात-आठ साल से कड़ा परिश्रम, सपनों का रंग और तकनीक सिखाना। चीन की राजधानी पेईचिंग में ओलंपिक के लिए बनाया गया ‘बर्डनेस्ट स्टेडियम’ का बाहरी हिस्सा पर्यटकों के लिए है लेकिन उसके भीतर सुबह छह बजे से आठ से दस साल की बच्चियां दिख जाती है।
वहां स्कूलों में खिलाड़ी बच्चों के लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था होती है, तोकि उन पर परीक्षा जैसा दवाब ना हो। जबकि दिल्ली में स्टेडियम में सरकारी कार्यालय व सचिवालय चलते हैं। कहीं षादियां होती हैं। महानगरों के सुरसामुखी विस्तार, नगरों के महानगर बनने की लालसा, कस्बों के षहर बनने की दौड़ और गांवों के कस्बे बनने की होड़ में मैदान, तालाब, नदी बच नहीं रहे हैं झारख्ंाड में नेशनल लेबल के तैराक बच्चे ऐसे पोखर में अभ्यास करते हैं जिसमें घडियाल , सांप या मेढक आम है। मैदान कंक्रीट के जंगल के उदरस्थ हुए तो खेल का मुकाम क्लब या स्टेडियम में तब्दील हो गया। वहां जाना, वहां की सुविधाओं का इस्तेमाल करना आमोखास के बस की बात होता नहीं । जब दिल्ली में स्टेडियमों में स्कूल के आयेाजन या षादियों होती हैं तो जान लें कि जिला स्तर पर ऐसे सार्वजनिक खेल परिसरों के हालात क्या होंगे।
ख्ेाल के एसोशिसन किस तरह सियासतदां के अखाड़े बन गए हैं और उनका खेल व खिलाड़ी के प्रति कितना सम्मान है, उसका खुलासा हाल के रियो ओलंपिक में गए सैंकड़ाभर से ज्यादा गैर खिलाड़ियों के दल ने कर दिया है। विजेता खिलाड़ियों पर जिस तरह से लेाग पैसा लुटाते हैं असल में यह उनका खेल के प्रति प्रेम या खिलाड़ी के प्रति सम्मान नही होता, यह तो महज बाजार में आए एक नए नाम पर निवेश होता है। क्रिकेट की बानगी सामने है, जिसमें ट्रैनिंग से ले कर आगे तक कारपोरेट घरानों का सहयोग व संलिप्तता है।
यह जान लेना जरूरी है कि अंतरराश्ट्रीय स्तर पर हमारे खिलाड़ी तैयार ना होने का सबसे बड़ा कारण हमारे यहां छोटी उम्र में प्रतिभाओं की पहचान व उनको सहयोग ना मिल पाना हे। रूस, चीन या अमेरिका में जिस उम्र में खिलाड़ी अंतरराश्ट्रीय स्तर पर झंडे गाड़ देते हैं, हमारे यहां उस उम्र में उनकी शिनाख्त हो पाती है। हमारे यहां बच्चों के लिए, शिक्षा के लिए किए जा रहे काम को जिम्मेदारी से ज्यादा धर्माथ का काम माना जाता है और तभी स्कूलों, हॉस्टल, खेल मैदान, खिलाड़ियों की दुर्गति, स्कूली टूर्नामेंट स्तर पर खिलाड़ियों को ठीक से खाना तक नहीं मिलना जैसी बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। हुक्मुरान समझते हैं कि ‘‘इतना कर दिया वह कम है क्या’’। मुल्क का हर बच्चा भलीभंाति विकसित हो, शिक्षित हो, उसकी प्रतिभा को निखरने का हरसंभव परिवेश मिले, यह देश के लिए अनिवार्य है, ना कि इसके लिए किए जा रहे सरकारी बजट का व्यय कोई दया । यह भाव जब तक पूरी मशीनरी में विकसित नहीं होगा, हम बालपन में उर्जावान, उदीयमान और उच्च महत्वाकांक्षा वाले बच्चों को सही ऊंचाई तक नहीं ले जा पांगे।
स्थानीय टूर्नामेंट की बात क्या की जाए, जब ओलंपिक में गए दल के किसी सदस्य के पास जर्सी नहीं थी तो किसी के पास फिजियोथेरेपिस्ट। डाक्टर तक नहीं था, एक रेडियोलोजिस्ट को डाक्टर के तौर पर भ्ेाज दिया गया था जो कि पेरासीटामाल से ज्यादा दवाई नहीं जानता था। ऐसी घटनाओं पर चुप्पी व ऐस करने वालों पर कड़ी कार्यवाही ना होना, खेल के  प्रति देश के लापरवाह नजरिये का प्रतिबिंब है। देश के हर कोने में जिम्नास्ट, दौड़, लंबी कूद कुश्ती की प्रतिभाएं छिपी हैं, लेकिन दिल्ली, हरियाणा के अखाड़े के पहलवान 15 सल मिट्टी में तन घोटने के बाद किसी क्लब में बाउंसर बन जाते हैं या किसी गिरोह के सदस्य। षायद ही कोई ऐसा जिला मिले , जहां कोई राश्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी जीवनयापन की जद्दोजहद में अपनी प्रतिभा को होम करता ना मिले। हर कस्बे में आठ से दस साल के बच्चों में कामल करने की क्षमता वाले दर्जनों मिलेंगे। लेकिन हम तो उगते सूरज पर ही अर्ध्य चढ़ाने के आदी हैं। टिमटिमाते सितारों को अनगिनत मान कर विस्मृत करना हमारी फितरत है।
अब समाज को ही अपनी प्रतिभाओं को तलाशने, तराशने का काम अपने जिम्मे लेना होगा। किस इलाके की जलवाुय कसी है और वहां किस तरह के खिलाड़ी तैयार हो सकते हंे इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो। जैसे कि समुंद के किनारे वाले इलाकों में दौड़ने का स्वाभाविक प्रभाव होता हे। पूर्वोत्तर में षरीर का लचीलापन है तो वहां जिम्नास्टिक, मुक्केबाजी पर काम हो। झाारखंड व पंजाब में हाकी। ऐसे ही इलाकों का नक्शा बना कर प्रतिभाओं को उभारने का काम हो। जिला स्तर पर समाज के लेागों की समितियां, स्थानीय व्यापारी और खेल प्रेमी ऐसे लेागों को तलाशंे। इंटरनेट की मदद से उनके रिकार्ड को आंकड़ों के साथ प्रचारित करें। हर जिला स्तर पर अच्छे एथलेटिक्स के नाम सामने होना चाहिए। वे किन प्रतिस्पर्दाओं में जाएं उसकी जानकारी व तैयारी का जिम्मा जिला खेल कमेटियों का हो। बच्चों को संतुलित आहार, ख्ेलने का महौल, उपकरण मिले,ं इसकी पारदर्शी व्यवस्था हो और उसमें स्थानीय व्यापार समूहों से सहयोग लिया जाए। सरकार किसी के दरवाजे जाने से रही, लेागों को ही ऐसे लेागों को षासकीय योजनाओं का लाभ दिलवाने के प्रयास करने होंगे। सबसे बड़ी बात जहां कहीं भी बाल प्रतिभा की अनदेखाी या दुभात होती दिखे, उसके खिलाफ जोर से आवाज उठानी होगी।

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 बंजर होती धरती

जलभराव के कारण किसानों को ज्वार, कपास, बाजरा, सरसों, चना आदि फसलों का फायदा नहीं मिल पा रहा और जमीन के बंजर होने का खतरा पैदा हो गया है।

                                                            

खेती में अव्वल कहे जाने वाले हरियाणा में कोई पैंतीस लाख हेक्टेयर खेती की जमीन है। मगर अब राज्य का कृषि विभाग चिंतित है कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो जल्द हजारों हेक्टेयर खेती की जमीन बंजर हो जाएगी। पलवल जिले की सत्तर हजार हेक्टेयर भूमि में पोषक तत्त्व जिंक की कमी हो गई है। इसी तरह फरीदाबाद जिले में छियालीस हजार हेक्टेयर, गुड़गांव में एक लाख बारह हेक्टेयर और मेवात में चालीस हजार हेक्टेयर क्षेत्र में जिंक की कमी है। यह सब रासायनिक खाद के अंधाधुंध उपयोग से हो रहा है। इसी तरह कई अन्य पोषक तत्त्व चुकते जा रहे हैं।
दादरी क्षेत्र की करीब पांच हजार हेक्टेयर भूमि में धान की रोपाई की जा रही है। नहर के समीपवर्ती क्षेत्रों में किसानों ने नमी ज्यादा रहने के कारण धान रोपाई का कार्य शुरू किया। धीरे-धीरे धान का क्षेत्रफल बढ़ता गया। देखादेखी बीस-पच्चीस गांवों में धान की फसल लगाई जाने लगी। लेकिन धीरे-धीरे यह जमीन दलदली होती गई और जलभराव की स्थिति पैदा होने लगी। जलभराव के कारण किसानों को ज्वार, कपास, बाजरा, सरसों, चना आदि फसलों का फायदा नहीं मिल पा रहा और जमीन के बंजर होने का खतरा पैदा हो गया है।
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में किसानों की अधिक से अधिक उत्पादन लेने की लालसा के चलते सबसे कीमती उपजाऊ जमीन अम्लीयता की भेंट चढ़ रही है। कृषि विभाग द्वारा कराए गए मिट््टी परीक्षण में यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। जिले में एक हजार से ज्यादा किसानों की जमीन में अम्लीयता निर्धारित स्तर से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो यह उपजाऊ जमीन बंजर में तब्दील हो जाएगी।
यह तो महज कुछ बानगी है। देश के हर जिले, हर गांव में खेती वाली जमीन कुछ ऐसे ही कराह रही है। जब पृथ्वी पर जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, लोगों के रहने, उनका पेट भरने के लिए अनाज उगाने, विकास से उपजे पर्यावरणीय संकट से जूझने के लिए हरियाली की जरूरत बढ़ रही है, वहीं धरती का मातृत्व गुण दिनों-दिन चुकता जा रहा है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मानव सभ्यता के लिए यह संकट खुद मानव समाज द्वारा कथित प्रगति की दौड़ में उपजाया जा रहा है। जिस देश के अर्थतंत्र का मूल आधार कृषि हो, वहां एक तिहाई भूमि का बंजर होना चिंता का विषय है। देश की कुल बत्तीस करोड़ नब्बे लाख हेक्टेयर भूमि में से बारह करोड़ पंचानबे लाख सत्तर हजार हेक्टेयर बंजर है।
भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अभी तक कोई विस्तृत सर्वेक्षण नहीं हुआ है, फिर भी केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का अनुमान है कि सर्वाधिक बंजर जमीन मध्यप्रदेश में है- दो करोड़ एक लाख बयालीस हेक्टेयर। उसके बाद राजस्थान का नंबर आता है, जहां एक करोड़ निन्यानबे लाख चौंतीस हेक्टेयर, फिर महाराष्ट्र में एक करोड़ चौवालीस लाख एक हजार हेक्टेयर बंजर जमीन है। आंध्रप्रदेश में एक करोड़ चौदह लाख सोलह हजार हेक्टेयर, कर्नाटक में इक्यानबे लाख पैंसठ हजार, उत्तर प्रदेश में अस्सी लाख इकसठ हजार, गुजरात में अट्ठानबे लाख छत्तीस हजार, ओड़ीशा में तिरसठ लाख चौरासी हजार और बिहार में चौवन लाख अट्ठावन हजार हेक्टेयर जमीन अपनी विशिष्टता खो चुकी है। पश्चिम बंगाल में पच्चीस लाख छत्तीस हजार, हरियाणा में चौबीस लाख अठहत्तर हजार, असम में सत्रह लाख तीस हजार, हिमाचल प्रदेश में उन्नीस लाख अठहत्तर हजार, जम्मू-कश्मीर में पंद्रह लाख पैंसठ हजार, केरल में बारह लाख उन्यासी हजार हेक्टेयर जमीन अनुपजाऊ है।
पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में बारह लाख तीस हजार हेक्टेयर, पूर्वोत्तर के मणिपुर, मेघालय और नगालैंड में क्रमश: चौदह लाख अठतीस हजार, उन्नीस लाख अठारह हजार और तेरह लाख छियासी हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है। सर्वधिक बंजर भूमि वाले मध्यप्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है। यहां पिछले दो दशकों में बीहड़ बंजर दो गुना होकर तेरह हजार हेक्टेयर हो गए हैं। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है, तो बरसात का पानी सीधा धरती पर पड़ता है और वहां की मिट््टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट््टी काटते हुए वह बहता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चल कर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती हैं। एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वह और गहरा होता जाता है। ऐसे भूक्षरण से हर साल लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। इसका सर्वाधिक प्रभावित इलाका चंबल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक नदियों के किनारे के उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात हैं। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है, उसके अनुसार बंजर खत्म होने में दो सौ वर्ष लगेंगे, तब तक ये बीहड़ ढाई गुना अधिक हो चुके होंगे।
बीहड़ों के बाद, धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा खनन-उद्योग रहा है। पिछले तीस वर्षों में खनिज-उत्पादन पचास गुना बढ़ा है, लेकिन यह लाखों हेक्टेयर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है। नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं। फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति के लिए आसपास की हरियाली होम होती है। उसके बाद गहरी खदानें बनाई जाती हैं, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है। वहीं खदानों से निकली धूल-रेत और अयस्क मिश्रण दूर-दूर तक जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं। खदानों के गैर-नियोजित अंधाधुंध उपयोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या बढ़ी है। ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन होता है।
हरित क्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है, वे भी जमीन की कोख उजाड़ने के लिए जिम्मेदार रही हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली, फिर भूमि बंजर होने लगी। यही नहीं, जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से लगाए जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं। सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे-बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं। सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आसपास जल रिसने से दलदल बन रहे हैं।
जमीन को नष्ट करने में समाज का लगभग हर वर्ग और तबका लगा हुआ है, वहीं इसके सुधार का जिम्मा मात्र सरकारी कंधों पर है। 1985 में स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने बीस सूत्रीय कार्यक्रम के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था। आंकड़ों के मुताबिक इस योजना के तहत एक करोड़ सत्रह लाख पंद्रह हजार हेक्टेयर भूमि को हरा-भरा किया गया। लेकिन इन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाइट से खींचे चित्रों में उजागर हो चुका है। क्षारीय भूमि को हरा-भरा बनाने के लिए केंद्रीय वानिकी अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में कुछ सफल प्रयोग किए गए हैं। यहां आस्ट्रेलिया में पनपने वाली एक झाड़ी का प्रारूप तैयार किया गया है, जो गुजरात और पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षारीय जमीन पर उगाई जा सकती है। ‘साल्ट-बुश’ नामक इस झाड़ी को भेड़-बकरियां खा भी सकती हैं। संस्थान में कुछ अन्य विदेशी पेड़ों के साथ-साथ देशी नीम, खेजड़ी, रोहिड़ा, बबूल आदि को रेतीले क्षेत्रों में उगाने के प्रयोग किए जा रहे हैं।
कुछ साल पहले बंजर भूमि विकास विभाग द्वारा बंजर भूमि विकास कार्य बल के गठन का भी प्रस्ताव था। कहा गया कि रेगिस्तानी, पर्वतीय, घाटियों, खानों आदि दुर्गम भूमि की गैर-वनीय बंजर भूमि को स्थायी उपयोग लायक बनाने के लिए यह कार्य-बल काम करेगा। लेकिन यह सब कागजों पर बंजर से अधिक साकार नहीं हो पाया। प्राकृतिक और मानव-जनित कारणों के चलते आज खेती, पशुपालन, गोचर, जंगल सभी पर खतरा है। पेयजल संकट गहरा रहा है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी ढेर सारी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिए कोई कार्रवाई नहीं किया जाना एक विडंबना ही है। आज सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिए आमंत्रित कर रही है, लेकिन निजी छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है। हमारे देश में कोई तीन करोड़ सत्तर लाख हेक्टेयर बंजर भूमि ऐसी है, जो कृषि योग्य समतल है। अनुमान है कि प्रति हेक्टेयर ढाई हजार रुपए खर्च कर इस जमीन को खेती लायक बनाया जा सकता है, जो हमारे देश की कुल कृषि भूमि का छब्बीस प्रतिशत है। सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी के मद्देनजर जाहिर है कि इतनी राशि सरकारी तौर पर एकमुश्त मुहैया हो पाना नामुमकिन है।
ऐसे में भूमिहीनों को इसका मालिकाना हक देकर उस जमीन को कृषि योग्य बनाना, देश के लिए क्रांतिकारी कदम होगा। इससे कृषि उत्पाद बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा और पर्यावरण रक्षा भी होगी। अगर यह भी नहीं कर सकते तो खुले बाजार के स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाने के लिए अगर ऐसी ही अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीन को लिया जाए। इसके बहुआयामी लाभ होंगे- जमीन का क्षरण रुकेगा, हरी-भरी जमीन पर मंडरा रहे संकट के बादल छंटेंगे। चूंकि जहां बेकार बंजर भूमि अधिक है वहां गरीबी, बेरोजगारी भी है, नए कारखाने वगैरह लगने से उन इलाकों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। बस करना यह होगा कि जो पैसा जमीन का मुआवजा बांटने में खर्च किया जाना है, उसे समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़क-बिजली मुहैया कराने जैसे कामों में खर्च करना होगा।

सोमवार, 22 अगस्त 2016

where to dispose atomic waste

समस्या बनता परमाणु कचरा
 हर साल बिजली की मांग बढ़ रही है। हालांकि अभी हम कुल 4780 मेगावाट बिजली ही परमाणु से पैदा कर पा रहे हैं, जो कि हमारे कुल बिजली उत्पादन का महज तीन फीसद ही है। अनुमान है कि हमारे परमाणु ऊर्जा घर 2020 तक 14600 मेगावाट बिजली बनाने लगेंगे और 2050 तक हमारे कुल उत्पादन का एक-चौथाई अणु-शक्ति से आएगा। भारत में परमाणु ऊर्जा के पक्ष में तीन बातें कही जाती हैं कि ये सस्ती है, सुरक्षित है और स्वछ यानी पर्यावरण हितैषी है। जबकि सचाई ये है कि इनमें से कोई एक भी बात सच नहीं है। यह भी बात सही नहीं है कि देश में बिजली की बेहद कमी है और उसे पूरा करने के लिए कार्बन पदार्थ जल्दी ही खत्म हो जाएंगे। यह किसी से छिपा नहीं है कि महज कुछ लोगों के मनोरंजन के लिए स्टेडियम में इतनी बिजली फूंक दी जाती है जिससे एक साल तक कई गांव रोशन हो सकते हैं। मुंबई में एक 28 मंजिला इमारत में रहने वालों की संख्या पांच भी नहीं है, लेकिन उसकी महीने की बिजली खपत एक गांव की चार साल की खपत से यादा है।
विकास के लिए एक महत्वपूर्ण घटक है बिजली। उसकी मांग व उत्पादन बढ़ना स्वाभाविक ही है, लेकिन जो सवाल दुनिया के सामने है, उस पर भारत को भी सोचना होगा-परमाणु घरों से निकले कचरे का निबटान कहां व कैसे हो। सनद रहे परमाणु विकिरण सालों-दशकांे तक सतत चलता है और एक सीमा से अधिक विकिरण मानव शरीर व पर्यावरण को कैसे नुकसान पहुंचाता है। उसकी नजीर जापान का हिरोशिमा व नागासाकी हैं। वैसे तो इस संवेदनशील मसले पर 14 मार्च, 2012 को एक प्रश्न के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने लोकसभा में बताया था कि परमाणु कचरे का निबटना कैसे होता है? यह बात सालों पहले भी सुगबुगाई थी कि ऐसे कचरे को जमीन के भीतर गाड़ने के लिए उपेक्षित, वीरान और पथरीले इलाकों को चुना गया है और उसमें बुंदेलखंड का भी नाम था।
सरकार का लोकसभा में दिया गया जवाब बताता है कि परमाणु बिजली घर से निकले कचरे को पहले अति संवेदनशील, कम संवेदनशील तथा निष्क्रिय में छांटा जाता है। फिर खतरनाक कचरे को सीमेंट, पॉलीमर, कांच जैसे पदार्थो में मिला कर ठोस में बदलने को रखा जाता है। इनके ठोस में बदलने तक कचरा बिजली घरों में ही सुरक्षित रखा जाता है। इसे दोहरी परत वाले सुरक्षित स्टेनलेस स्टील के पात्रों में रखा जाता है। जब यह कचरा पूरी तरह ठोस में बदल जाता है और उसके रेडियोएक्टिव गुण क्षीण हो जाते हैं तो उसे जमीन की गहराई में दफनाने की तैयारी की जाती है। सनद रहे पश्चिमी देश ऐसे कचरे को अभी तक समुद्र में बहुत गहरे में दबाते रहे हैं। उधर जर्मनी के हादसे पर कम ही चर्चा होती है, जहां परमाणु कचरे को जमीन के भीतर गाड़ा गया, लेकिन वहां पानी रिसने के कारण हालात गंभीर हो गए व कचरे को खोद कर निकालने का काम करना पड़ा। अमेरिका में छह स्थानों पर भूमिगत कचरा घर हैं जिन्हें दुनिया की सबसे दूषित जगह माना जाता है। इनमें से हैनफोर्ड स्थित कचरे में रिसाव भी हो चुका है, जिसे संभालने में अमेरिका को पसीने आ गए थे।
अणु ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलने के लिए यूरेनियम नामक रेडियोएक्टिव को बतौर ईंधन प्रयोग में लाया जाता है। न्यूट्रॉन की बम वर्षा पर रेडियोएक्टिव तत्व में भयंकर विखंडन होता है। इस धमाके पर 10 लाख डिग्री सेल्सियस की गर्मी और लाखों वायुमंडलीय दवाब उत्पन्न होता है। इसीलिए मंदक के रूप में साधारण जल, भारी जल, ग्रेफाइट और बेरेलियम ऑक्साइड का प्रयोग होता है। शीतलक के रूप में हीलियम गैस संयंत्र में प्रवाहित की जाती है। विखंडन प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए कैडमियाम या बोरोन स्टील की छड़ें उसमें लगाई जाती हैं। बिजली पैदा करने लायक ऊर्जा मिलने के बाद यूरेनियम, प्लूटोनियम में बदल जाता है, जिसका उपयोग परमाणु बम बनाने में होता है। इसके नाभिकीय विखंडन पर ऊर्जा के साथ-साथ क्रिप्टॉन, जिनान, सीजियम आदि तत्व बनते जाते हैं। एक बार विखंडन शुरू होने पर यह प्रक्रिया लगभग अनंत काल तक चलती रहती है। इस तरह यहां से निकला कचरा बहेद विध्वंसकारी होता है। इसका निबटान सारी दुनिया के लिए समस्या है।
भारत में हर साल भारी मात्र में निकलने वाले ऐसे कचरे को हिमालय पर्वत, गंगा-सिंधु के कछार या रेगिस्तान में तो डाला नहीं जा सकता, क्योंकि कहीं भूकंप की आशंका है तो कहीं बाढ़ का खतरा। कहीं भूजल स्तर काफी ऊंचा है तो कहीं घनी आबादी। कहा जाता है कि परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिकों को बुंदेलखंड, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश का कुछ पथरीला इलाका इस कचरे को दफनाने के लिए सर्वाधिक मुफीद लगा और अभी तक कई बार यहां गहराई में स्टील के ड्रम दबाए जा चुके हैं।
परमाणु कचरे को बुंदेलखंड में दबाने का सबसे बड़ा कारण यहां की विशिष्ठ ग्रेनाइट संरचना है। यहां 50 फीट गहराई तक ही मिट्टी है और उसके बाद 250 फीट गहराई तक ग्रेनाइट पत्थर है। भूगर्भ वैज्ञानिक अविनाश खरे बताते हैं कि बुंदेलखंड ग्रेनाइट का निर्माण कोई 250 करोड़ साल पहले तरल मेग्मा से हुआ था। तबसे विभिन्न मौसमों के प्रभाव ने इस पत्थर को अन्य किसी प्रभाव का रोधी बना दिया है। यहां गहराई में बगैर किसी टूट या दरार के चट्टाने हैं और इसीलिए इसे कचरा दबाने का सुरक्षित स्थान मना गया।
अणु कचरे से निकलने वाली किरणों ना तो दिखती हैं और ना ही इसका कोई स्वाद या गंध होता है, लेकिन ये किरणंे मनुष्य के शरीर के प्रोटिन, एंजाइम, अनुवांशिक अवयवों में बदलाव ला देती हैं। यदि एक बार रेडियोएक्टिव तत्व मात्र से अधिक शरीर में प्रवेश कर जाए तो उसके दुष्प्रभाव से बचना संभव नहीं है। विभिन्न अणु बिजली घरों के करीबी गांव-बस्तियों के बाशिंदों के शरीर में गांठ बनना, गर्भपात, कैंसर, अविकसित बचे पैदा होना जैसे हादसे आम हैं, क्योंकि जैव कोशिकाओं पर रेडियोएक्टिव असर पड़ते ही उनका विकृत होना शुरू हो जाता है। खून के प्रतिरोधी तत्व भी विकिरण के चलते कमजोर हो जाते हैं। इससे एलर्जी, दिल की बीमारी, डायबीटिज जैसे रोग होते हैं। पानी में विकिरण रिसाव होने की दशा में नाइट्रेट की मात्र बढ़ जाती है। यह जानलेवा होता है।
ऐसे कचरे को बुंदेलखंड में दफनाने से पहले वैज्ञानिकों ने यहां बाढ़, भूचाल, युद्ध और जनता की भूजल पर निर्भरता जैसे मसलों पर शायद गंभीरता से विचार ही नहीं किया। इस इलाके में पांच साल में दो बर कम वर्षा व एक बार अति वर्षा के कारण बाढ़ आना मौसम चक्र बन चुका है। अविनाश खरे बताते हैं कि बुंदेलखंड का जल-स्तर शून्य से सौ फीट तक है। बुंदेलखंड ग्रेनाइट में बेसीन, सब बेसीन और माइक्रो बेसीन, यहां की नदियों, नालों के बहाव के आधार पर बंटे हुए हैं, लेकिन ये किसी ना किसी तरीके से आपस में जुड़े हुए हैं। यानी पानी के माध्यम से यदि रेडियोएक्टिव रिसाव हो गया तो उसे रोक पाना संभव नहीं होगा। नदियों के प्रभाव से पैदा टैक्टोनिक फोर्स के कारण चट्टानों में टूटफूट होती रहती है, जिससे विकिरण फैलने की संभावना बनी रहती है।

शनिवार, 20 अगस्त 2016

Beggers are most welcome in Delhi

दिल्ली में भिखारियों का स्वागत है !

                                                                                                                                 पंकज चतुर्वेदी

Dainik Prayukti, New Delhi 21-8-16
ऐसी ही घोषणा चार साल पहले राष्‍ट्रमंडल खेल के समय की गई थी और पिछले महीने एक बार फिर दिल्ली सरकार ने दोहराया था कि वह राजधानी को भिखारी-मुक्त बनाना चाहती है। हालांकि स्वयं मुख्यमंत्री ने दिल्ली से भिखारी भगाने की योजना को अमानवीय बता दिया व उसके बाद अभियान थम गया। अब यहां हाथ फैलाए, विदेशियों के सामने गिड़गिड़ाने वाले भिखारियों पर कोई रोकटोक नहीं है। सुबह पांच बजे से ही हनुमान मंदरि पर गांजा पीते, लड़ते, गंदगी फैलाते, बंदरों को साथ ले कर उत्पादत करते भिखारियों का जमावड़ा हो जाता है। ऐसी ही भीड़ बंगला साहब गुरूद्वारा , उसके सामने के गिरजाघर के बाहर दिन दुगने रात चौगुने बढ़ रही हैं। पिछले महीने 18 जुलाई को भिखारी-मुक्त दिल्ली का अभियान षुरू होना था। इसके लिए समाज कल्याण विभाग ने 10 टीेमं बनाई थीं और प्रत्येक टीम में 30 लो गथे। सनद रहे दिल्ली में कितााबों के मुताबिक भीख मानना अपराध है। लेकिन राज्य की सरकार अब चाहती है कि भीख पर रोक ना हो। हां, आशय की ट्वीट  अभियान शुरू होने के ठीक पहले स्वयं मुख्यमंत्री ने किया था।
सरकारी आंकड़ों पर यदि भरोसा करें तो इस समय दिल्ली में साठ हजार से अधिक भिखारी सक्रिय हैं। इनमें से कोई 30 फीसदी 18 साल से कम आयु के हैं। इनमें 69.94 प्रतिशत पुरुश और षेश 30.06 फीसदी महिलाएं हैं। इन आंकड़ों की हकीकत तो इस बात से ही उजागर हो जाती है कि दिल्ली में भीकाजी कामा प्लेस, पीरागढ़ी, आईटी जैसे कई इलाकों में कई हिजड़े भी भीख मांगते दिखते हैं, जाहिर है कि उनकी कोई गणना ही सरकारी अमलांे ने की ही नहीं। वैसे एक स्वयंसेवी संस्था के मुताबिक इन दिनों दिल्ली में एक लाख से अधिक लोगों का ‘‘पेशा’’ भीख मांगना है संबद्ध विभागों की निश्क्रियता, संसाधनों के अभाव और भीख मांगने के काम को संगठित व माफिया के हाथों जाने के कारण दिल्ली में मानवता का यह अभिशाप दिन-दुगनी रात-चौगुनी प्रगति कर रहा है। विडंबना भी कि दिल्ली में मजबूरी या अपनी मर्जी से भीख मांगने वाले इक्के-दुक्के ही हैं। अधिकांश भिाखारी अपने आकाओं के इशारे पर यह काम करते हैं। मंगलवार को हनुमान मंदिर या जुम्मे के दिन जामा मस्जिद या फिर रविवार को गोल डाकखाने के गरजाघार के सामने भिखारियों को छोड़ने और लेने के लिए बाकायदा बड़े वाहन आते हैं। सीलमपुर, त्रिलोकपुरी, सीमापुरी, कल्याणपुरी जैसी कई अनाधिकृत बस्तियों में बच्चों को भीख मांगने का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। यही विकलांग, दुधमुंहे बच्चे, कुश्ठरोगी आदि विशेश मांग पर ‘सप्लाई’ किए जाते हैं।
वैसे तो भीख मांगने को सरकार ने कानूनन गुनाह घोशित कर रखा है, लेकिन अभी तक माना जाता रहा था कि यह एक सामाजिक समस्या है और इसे कानून के डंडे से ठीक नहीं किया जा सकता। बीते कुछ सालों में दिल्ली में जिस तरह से रोजगार के अवसर पैदा हुए, उसके बावजूद हट्टे-कट्टे लोगों द्वारा सरेआम हाथ फैलाने को समाजशास्त्री बहुत हद तक नजरअंदाज करते रहे और अब हालात यह है कि आज भिखारी कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती बन गए हैं। दिल्ली के धार्मिक स्थलों के अलावा लगभग सभी लाल बत्तियों पर भिखारियों का कब्जा है। कुछ विकलांग हैं, कुछ औरतें है। जो खुद को गर्भवती या गोदी के बच्चे के लिए दूध या फिर किसी अस्पताल का पर्चा दिखा कर दवाई के लिए पैसे मांगती हैं। नट के करतब या फिर गाना गा कर भीख मांगने के काम में बच्चों की बड़ी संख्या षामिल हैं। हाथ में भगवान या सांई बाबा के फोटो ले कर रियिाने से धर्मप्राण जनता ना चाहते हुए भी जेब में हाथ डाल कर कुछ बाहर निकाल लेती है।
कहा जाता है कि मजबूरी का नाम दिल्ली है और दिल्ली का समाज कल्याण विभाग भी इन भिखारियों के सामने अपनी मजबूरी का रोना रोता है। पिछले सालों  में जितने भी भिखारी पकेड़े गए उनमें से अधिकांश दूसरे राज्यों से थे । दिल्ली सरकार ने लाख लिखा-पढ़ी की, लेकिन कोई भी राज्य अपने इन भिखारियों को वापिस लेने को राजी नहीं हुआ। भिखारियों से निबटने के लिए दिल्ली  के पास अपना कोई कानून नहीं है और यहां पर ‘‘द बांबे प्रिवेंशन आफ बेगर्स एक्ट-1969’’ के तहत ही कार्यवाही की जाती है। राज्य के समाज कल्याण महकमे के पास दिल्ली की डेढ़ करोड़ से अधिक आबादी और कई-कई किलोमीटर के विस्तार के बावजूद महज 12 मोबाईल कोर्ट हैं। इसमें समाज कल्याण विभाग के अलावा पुलिस वाले हाते हैं। उम्मीद की जाती है कि ये दस्ते हर रोज भीड़-भाड़ वाली जगहों, धार्मिक स्थलों आदि पर छापामारी कर भीख मांगने वालों को पकड़ें। इन पकड़े गए भिखारियों को किंग्सवे कैंप स्थित अदालत में पेश किया जाता है। अपराध साबित होने पर एक से तीन साल की सजा हो जाती है। यह भी गौर करने लायक बात है कि पकड़े गए भिखारियों को रखने के लिए दिल्ली में 11 आश्रय स्थली हैं, जिनकी क्षमता महज 2018 है। एक तरफ भिखारियों की इतनी बड़ी संख्या और दूसरी ओर उन्हें बंदी रखने के लिए इतनी कम जगह। तभी ये आश्रय स्थल भिखारियों को षातिर अपराधी और ढीठ बना रहे हैं। वहां आए दिन हंगामे, संदिग्ध मौत और फरारी के किस्से सामने आते रहते हैं। वैसे तो कहा जाता है कि इन आश्रय गृहों में भिखारियों को कई काम सिखाए जाते हैं, जिससे वे बाहर जा कर अपना जीवनयापन सम्मानजनक तरीके से कर पाएं हकीकत में ये सभी ट्रेनिंग सेंटर कागजों पर हैंं और आश्रय गृहों की गंदगी, काहिली और अराजकता उन्हें एक अच्छा भिखारी से ज्यादा कुछ नहीं बना पाती है।
भिखारियों को पकड़ा जाना भले ही सरकार को अमानवीय लगे लेकिन अब ऐसा जटिल समय आ गया है कि सरकार में बैठे लोगों को भी देश की आर्थिक प्रगति के मद्देनजर इस समस्या को गंभीरता से देखना होगा। उल्लेखनीय है कि दिल्ली के भिखारियों में से अधिकश्ंा हट्टे-कट्टे मुस्तंड हैं और मेहनत मजदरी के बनिस्पत भीख मांगना ज्यादा फायदे का ध्ंाधा समझते हैं।  ये अकर्मण्य लोग राश्ट्र की मुख्य धारा व विकास की गति से अलग-थलग हैं और इनके कारण गरीबी उन्मूलन की कई योजनाएं भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। असल में भिखारीपन की वहज हो तलाशना जरूरी है। हम अभी भी सन 1969 के कानून के बदौलत इस सामाजिक अपराध से जूझने के असफल प्रयास कर रहे हैं, जबकि इन चालीस सालों में देश की आर्थिक्-सामाजिक तस्वीर बेहद बदल गई है। भिखारी की परिभाशा अलग-अलग राज्यों मे अलग-अलग हैं। कहीें पर नट, साधू, मदारी आदि को पारंपरिक कला का संरक्षक कहा जता ह तो कोई राज्य इन्हें भिखारी मानता है। भूमंडलीकरण के दौर में भारत के आर्थिक सशक्तीकरण का मूल आधार यहां का सशक्त मानव संसाधन है और ऐसे में लाखों हाथों का बगैर काम किए दूसरों के सामने फैलना देश की विकासशील छवि को धूमिल कर रहा हैं।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-2649985



शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

scavengers needs get rid of cleaning by empty hand

                                                                       कैसे मिलेगी भंगी मुक्ति की राह


एक तरफ अंतरिक्ष को अपने कदमों से नापने के बुलंद हौसले हैं तो दूसरी तरफ दूसरों का मल सिर पर ढोते नरक कुंड की सफाई करती मानव जाति। संवेदनहीन मानसिकता और नृशंस अत्याचार की यह मौन मिसाल सरकारी कागजों में दंडनीय अपराध है। यह बात दीगर है कि सरकार के ही महकमे इस घृणित कृत्य को बाकायदा जायज रूप देते हैं। नृशंसता यहां से भी कहीं आगे तक है, समाज के सर्वाधिक उपेक्षित व कमजोर तबके के उत्थान के लिए बनाए गए महकमे खुद ही सरकारी उपेक्षा से आहत रहे हैं। वैसे तो चार साल पहले ही संसद में पारित सफाई कर्मचारी निषेध अधिनियम-2012 में सीवर और सैप्टिक टैंक को हाथों से साफ करवाने को भी अपराध घोषित किया गया है, लेकिन इसका पालन संसद की नाक के नीचे दिल्ली में भी नहीं हो रहा है। भंगी-मुक्ति के लिए बने ढेर सारे आयोग, कमेटियों, को बतौर बानगी देखें तो पाएंगे कि सरकार का इस मलिन कार्य से इंसान की मुक्ति की इच्छा शक्ति ही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त करने के लिए लगाई गई एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान इस कार्य को गंभीरता से न लेने पर पांच राज्यों को फटकार लगाते हुए जुर्माना भी ठोक चुकी हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत बीते एक सालों के दौरान कोई 10 बार इस तरह के कड़े तेवर दिखा चुकी है। कई कानून भी हैं, इसके बावजूद सिर पर नरक कुंड ढोने की परंपरा समाप्त नहीं हो पा रही है। इसका कारण है कि सरकार इस सामाजिक समस्या को जातीय समस्या के तौर पर ले रही है। न तो इसके अतीत को समझा जा रहा है और न मानवीयता को, बस कुछ बजट फूंकने की जुगत से ज्यादा नहीं रह गया है भंगी-मुक्ति आंदोलन।
 मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कोई एक दर्जन जिलों में विस्तारित भूखंड बुंदेलखंड में सफाई के काम में लगे लोगों की जाति ‘बसोर’ कहलाती है। बसोर यानि बांस का काम करने वाले। और वास्तव में अभी भी उनके घरों में बांस की टोकरियां, सूप आदि बनाने का काम होता है। अभी कुछ दशक पीछे ही जाएं तो पता चलता है कि बसोर बांस का बेहतरीन कारीगर हुआ करता था। आधुनिकता की आंधी में बांस की खपच्चियों की कला कहीं उड़ गई और उनके हाथ आ गए झाड़ू-पंजा। गुजरात की गाथा इससे अलग नहीं है, वहां भी बांस की टोकरी बनाने वालों को भंगी कहा जाता है। भंगी यानी जो बांस को भंग करे। गुजरात और महाराष्ट्र व सीमावर्ती मध्य प्रदेश में सफाई कर्मचारियों के उपनाम ‘वणकर’ हुआ करते हैं यानी बुनकर। गौरतलब है कि अंग्रेजों के आने के बाद भारत में बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलें लगीं और इंग्लैंड से सस्ता कपड़ा आयात होने लगा। फलस्वरूप हथकरघे बंद होने लगे। जब कारखाने खुल रहे थे, तभी शहरीकरण हो रहा था। इन्हीं हालातों के चलते बुनकर को ‘वणकर’ बनने पर मजबूर होना पड़ा। यदि अंग्रेज समाजशास्त्री स्टीफन फ्यूकस के एक शोध को विश्वास के काबिल मानें तो जानकर आश्चर्य होगा कि मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में जाति-धर्म परिवर्तन की तरह भंगी बनाने की बाकायदा प्रक्रिया होती है। ऐसे ही कई उदाहरण देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं, जो इंगित करते हैं कि समाज के सर्वाधिक उपेक्षित इस वर्ग को ‘जाति’ कहना न्यायोचित नहीं है। प्रागैतिहासिक काल या उससे भी पहले की पौराणिक कथाओं की बात करें या अंग्रेजों के आगमन तक के इतिहास की, कहीं भी सफाई कर्मचारी नामक समाज का उल्लेख नहीं मिलता है। विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यताओं में से एक मोहन-जोदड़ो में जब सीवर प्रणाली के प्रमाण मिले हैं तो स्पष्ट है कि भारत में पहले साफ-सफाई समाज की साझा जिम्मेदारी हुआ करती थी, न कि किसी समाज विशेष की। वैसे भी यह स्वीकार्य तथ्य है कि सामंतवाद, जातिवाद या शोषण का सर्वाधिक असर उन इलाकों में होता है, जहां अशिक्षा, संचार व परिवहन साधनों का अभाव होता है। तभी आज छोटी जातियों पर अत्याचार के अधिकांश मामले दूरस्थ गांवों में ही सुनाई देते हैं। लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि सफाई कर्मचारियों की संख्या गांवों की तुलना में शहरों में कई गुना अधिक है। 
जाहिर है कि इस पेशे को पारंपरिकता से जोड़ना बेमानी होगा।आजादी के बाद से भंगी मुक्ति, सिर पर मैला ढोने पर पाबंदी सरीखे कई नारे सरकारी व गैरसरकारी संगठन लगाते रहे, लेकिन खुद केंद्र सरकार का यह आंकड़ा इन नारों की इच्छा शक्ति का खुलासा करता है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को केंद्र से इस मद में 175 करोड़ रुपए मिल चुके हैं, इसके बावजूद वहां अभी भी 48 हजार ऐसे सफाईकर्मी हैं, जो सिर पर मैला ढोते हैं। इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ और शाहजहांपुर में हैं। सामाजिक न्याय के संघषोंर् के लिए चर्चित बिहार में ‘समाजवाद’ की तस्वीर और भी वीभत्स है। जनगणना में यह बात उभर कर आई कि अभी भी राज्य में दो लाख ‘कमाऊ’ शौचालय हैं। इनका मल अपने सिर पर ढोने वालों की सरकारी संख्या तो महज आठ हजार है, लेकिन हकीकत में यह ग्राफ साठ हजार से ऊपर जाकर टकराता है। केंद्र सरकार की एक ताजा रिपोर्ट में यह बात बड़ी निर्लज्जता से स्वीकारी गई है कि हरियाणा में अभी भी 11 कस्बे ऐसे हैं, जहां सिर पर मैला ढोने की प्रथा बरकरार है। महाराष्ट्र में ऐसे कस्बे 116, राजस्थान में 66, पंजाब में 40 और आंध्र प्रदेश में 157 हैं। ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर, जहां से मात्र 60 किमी दूर स्थित पर्यटन स्थल पुरी, कटक आदि में आज भी नरक सफाई का काम ‘हरिजनों’ के हाथों जारी है। यह बात दीगर है कि सिर पर मैला ढुलाई का काम करवाना कानून की नजर में जुर्म है। यह कोई अकेला कानून नहीं है, जिसके दम पर सरकार मल साफ करने के अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा के निदान का दावा करती है। 1963 में मलकानी समिति ने सिफारिश की थी कि जो सफाई कामगार अन्य कोई नौकरी करना चाहे तो उन्हें चौकीदार, चपरासी आदि पद दे दिए जाएं। लेकिन उन सिफारिशों को सरकारी सिस्टम हजम कर चुका है। आज भी रोजगार कार्यालयों से महज जाति देख कर ग्रेजुएट बच्चों को सफाई कर्मचारी की नौकरी का परवाना भेज दिया जाता है। क्या यह एक सुनियोजित साजिश सा नहीं दिखता है कि समाज की सफाई के लिए अपना वर्तमान ही नहीं, भविष्य भी दांव पर लगाने वालों की खुद की बस्तियां गंदी, बदबूदार और कुप्रबंध की शिकार होती हैं। राजधानी दिल्ली से ले कर सुदूर कस्बे तक की वाल्मीकी बस्तियों पर निगाह डालें, वहां न तो पक्की सड़क होगी, न ही बिजली व पानी का माकूल इंतजाम। हां, बस्ती के बीचोंबीच या ईद-गिर्द देशी शराब की दुकान अवश्य मिल जाएगी । हरेक नगर पालिका स्तर पर सफाई कर्मचारियों के लिए ‘ट्रांजिट होम’ बनाने का खर्चा केंद्र सरकार देती है, ताकि सफाई कर्मचारी अपने पेशे से निवृत्त होकर वहां हाथ-पैर धो कर स्वच्छ हो सकें। लेकिन पूरे देश में ऐसे ट्रांजिट होम पर पालिका के वरिष्ठ अधिकारियों का कब्जा होता है। यहां तक कि सफाई कर्मचारियों को यह मालूम ही नहीं होता है कि सरकार ने उनके लिए ऐसी कोई व्यवस्था भी की है।
एक बात बहुत साफतौर पर जान लेना चाहिए कि खुली अर्थव्यवस्था के इस युग में भंगी मुक्ति और समाजवाद दोनों ही सिक्कों की खनक से ही संभव है। जब तक भंगी महंगा नहीं होगा, दशकों से पीड़ित इस वर्ग की मुक्ति नहीं होगी। उदाहरण सामने है कि अच्छी कमाई होती देख कर उच्च वर्ग के लोग बेहिचक चमार की रोजी-रोटी मार रहे हैं। वे न केवल जूतों की दुकान खोल रहे हैं, बल्कि इसके कारखाने भी लगा रहे हैं। इसी तरह खटीक के मांस व्यापार या मछुआरों की मछलियां अब सभी तथाकथित ऊंची जात के रोजगार का साधन बन गई हैं। ठीक इसी तर्ज पर यदि सफाई कर्मचारियों के वेतन और सुविधाएं बढ़ने दें तो अन्य जाति-वर्ग के लोग भी इस ओर आकर्षित होंगे। वैसे भी ऐसा करना आज समय की मांग है, क्योंकि सफाई कर्मियों में इन दिनों एकाधिकार की भावना आ गई है। फलस्वरूप वे काम को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं व लापरवाह हो गए हैं।वैसे यह कटु सत्य है कि भंगी मुक्ति न तो सरकार के हाथों संभव है और न ही स्वयंसेवी संस्थाओं के बदौलत। इसके लिए पहल स्वयं सफाई कर्मियों को ही करनी होगी और इसका प्रारंभिक कदम होगा आत्मसम्मान को पहचानना। अपने कर्तव्य की महत्ता को समझना। जागरूकता की कुंजी साक्षरता है। अतएव समाज के शिक्षित वर्ग को शिक्षा ऋण उतारने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। आज हर व्यवसाय के अत्याधुनिक तरीकों को विदेश से आयात किया जा रहा है। सफाई के क्षेत्र में ऐसे अनुसंधानों को खोजने का काम खुद समाज के जागरूक लोगों को करना होगा। एक बार फिर याद रखें, यह अर्थ-प्रधान युग है और अर्थ का मूल कर्म होता है।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

Independence movement, values and Irom

इरोम का उपवास और आजादी के मूल्य


                                                                                                                                        पंकज चतुर्वेदी
बीते 16 सालों से सुरक्षा बलों के अन्याय के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही इरोम शर्मिला चानू को लगा कि उसका यह शस्त्र काम का नहीं है और उसकी भूख न तो किसी की आत्मा को उकसा रही है और न ही सरकार को उसकी परवाह है। हताश इरोम ने अपना अन्न-जल त्यागने वाला अनशन तोड़ दिया और वह उस ओर मुड़ने को मजबूर हो गई, जो रास्ता गांधी की तरह सत्ता से दूर रहकर जनता की सेवा करने की नीति से परे का है। यह घटना तात्कालिक तौर पर मीडिया में सुर्खियां तो बनी, लेकिन इसका निहित संदेश बेहद तकलीफदेह हैं, अब आजादी के मूल्य यानी शांतिपूर्ण आंदोलन क्या अप्रासंगिक हो गए हैं?


देश आजादी की 70वीं वर्षगांठ मना रहा है, इस उदघोोष के साथ कि हमें यह आजादी अहिंसा, सत्यााग्रह के बल पर मिली। उससे ठीक पहले ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन’’ की बरसी यानि नौ अगस्त को दिल्ली से दूर पूर्वोत्‍तर राज्‍य मणिपुर में एक ऐसी घटना हुई जिसने सवाल खड़ाा किया कि क्या वास्तव में अभी भी अहिंसा, सत्याग्रह हमारी नीति के हिस्से हैं। बीते 16 सालों से सुरक्षा बलों के अन्याय के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही इरोम षर्मिला चानू को लगा कि उसका यह षस्त्र काम का नहीं है और उसकी भूख ना तो किसी की आत्मा को उकसा रही है और ना ही सरकार को उसकी परवाह है। हताश इरोम ने अपना अन्न-जल त्यागने वाला अनशन तोड़ दिया और वह उस ओर मुड़ने को मजबूर हो गई जो रास्ते गांधी की तरह सत्ता से दूर रह कर जनता की सेवा करने की नीति से परे का है। यह घटना तात्कालिक तौर पर मीडिया में सुर्खियां तो बनी लेकिन इसका निहित संदेश बेहद तकलीफदेह हैं, अब आजादी के मूल्य यानि षंातिपूर्ण आंदोलन क्या अप्रांगिक हो गए हैं ? 

उस समय इंफाल में बादलों के कारण अंधेरा सा हो गया था, कोई चार बज कर बीस मिनट पर जब घडी के कांटे थे और इरोम ने अपनी जुबान पर उंगली से शहद चखा और उनकी आंखें से आंसुू की धारा निकल पडी। लगभग 16 साल तक लगातार पुलिस सुरक्षा या हिरासत में, नाक में नली से ग्लुकोज दिया जाता रहा, वह इतने सालों अपनी मां से भी नहीं मिली, बस एक जुनून कि मणिपुर में आतंकवाद के खात्मे के नाम पर निर्दाेष लेागों को मारने का लाईसेंस देने वाला ‘अफसपा’ यानि सशस्त्र बल विशेशाधिकार अधिनियम हटाया जाए। विडंबना देखोे कि जो देश यह दावा करता रहा कि उसे आजादी अहिंसा व शांति से किए गए सत्याग्रह से मिली, वहां इरेाम शर्मिला चानू के सत्याग्रह का संदेश सत्ता शिखर तक सोलह साल मंे भी नहीं पहुंचा।  बहरहाल डाक्टरों का कहना है कि आने वाले दिन इरोम के लिए बेहद कठिन हैं, उन्हें सामान्य आहार लेने में सालों लगेंगे, हो सकता है कि  उनकी आंतें व लीवर इस लायक भी ना बचे हों कि चावल जैेसेे भोजन को पचा सकें।  इरोम की जुबान स्वाद भूल चुकी है और उन्हें जिस तरह कोई 5800 दिनों बाद शहद की मिठास का अहसास भी नहीं हुआ, शायद उसी तरह उन्हें अपने नए राजनीतिक संकल्प की जटिलता का अंदाजा नहंी है।

‘आयरन लेडी’ के नाम से मशहूर सन 2000 से जिनके लिए अस्पताल जेल बन चुका था, इरोम षर्मिला चानू के षरीर की आंतरिक संरचना भोजन को ग्रहण करने के लिए जिस तरह जर्जर हो चकी है, उसी तरह पूर्वाेत्तर की सियासत एक सामान्य लोकतांत्रिक स्वाद चखने की अनुभूति से परे हैं। मणिपुर के पडोसी राज्य अरूणाचल प्रदेश में सत्ता की उठा पटक की सियासत में एक कर्मठ, जमीन से उठे और युवा पूर्व मुख्यमंत्री को अवसाद  का शिकार बना दिया व उसकी दुखद परणिति उनकी आत्म हत्या से हुई, ,वह भी ठीक उसी दिन जब इरोम ने मणिपुर का मुख्यमंत्री बनने की अभिलाशा के साथ अपना अनशन तोड़ा। 
 अपने षादी करने और लोकतांत्रिक व्यवसथा में षामिल हो कर अपनी मांग को नए सिरे से उठाने का संकलप दर्शाते हुए अपने इस फैसले पर शर्मिला ने कहा कि वे सरकार, मीडिया और आम लोगों से काफी निराश हैं जो उनके आंदोलन को समुचित महत्व नहीं दे रहे थे । लेकिन मरते दम तक अफस्पा को हटाने की मांग पर वे संकल्पबद्ध हैं । वे कहती हैं ,‘‘ हां, मैंने तरीका जरूर बदल दिया है। अब मैं संसदीय लोकतंत्र का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ूंगी और अपनी मांग को सदन से सड़क तक उठाऊंगी।’’ 
इसमें कोई षक नहीं कि इरोम षर्मिला की भूख हड़ताल एक ठहरी हुई सी खबर बन गया था, इतने साल में एक और ‘इरोम’ नहीं उभरी कि वह 16 साल नहीं तो 16 दिन भी उनका साथ देती। लोग अपने जीवन के आवश्यक काम कर रहे थे और जब समय बचता तो उनकी चर्चा भी करते। कहा जाता है कि कोई 15 दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने भी इरोम को अपना अनशन समाप्त करने की ताकत दी थी। इसमें सर्वाेच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि देश के जिन इलाकों में अफस्पा लागू है वहां से किसी नागरिक के मौलिक अधिकार के हनन की शिकायत अगर कोर्ट के सामने आती है तो वह उस पर सुनवाई करेगा। इसका अर्थ यह माना जा रहा है कि अशांत घोषित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को मिला असीमित संरक्षण अब समाप्त हो गया है। गौरतलब है कि यह फैसला मणिपुर से संबंधित मामलों में ही आया है। इस अदालती जीत के बाद अब जनता में वे एक सफलता कीक हानी ले कर जा सकती हैं और जनमत का समर्थन जुटा सकती हैं। वैसे उनके अनशन समाप्ति में उनके ब्रिटिश मूल के प्रेमी की भी बड़ी भूमिका है जिसने इस ठहरे अंादंोलन को नए सिरे से खड़ा करने की योजना बनाई व इरोम को इसके लिए राजी किया। 
जिस तरह इरोम को यह समझने में सोलह साल लग गए कि भारत में अपनी मांग मनवाने के लिए अनशन कारगर नहीं हाते , इसके लिए या तो अदालत की षरण में जाओ, या फिर सत्ता की ताकत अपने हाथ रखो, षायद उनके सियासती पदार्पण के फैसले को भी समझने-आंकने में उन्हें समय लगे। जब इरोम 20 निर्दलीय विधायकों के साथ राज्य की ताकत अपने हाथ करने की बता कर रही है तो जरा मणपुर राज्य के सत्ता संघर्श पर भी गौर करें । मणिपुर की स्वतंत्रता और संप्रभुता 19वीं सदी के आरंभ तक बनी रही। उसके बाद सात वर्ष (1819 से 1825 तक) बर्मी शासकों ने यहां शासन किया। 1891 में मणिपुर ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया और 1947 में देश के साथ स्वतंत्र हुआ। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू होने पर यह एक मुख्य आयुक्त के अधीन भारतीय संघ के भाग ‘सी’ के राज्य के रूप में सम्मिलित हुआ। कालांतर में एक प्रादेशिक परिषद का गठन किया गया जिसमें 30 सदस्य चयन के द्वारा और दो सदस्य मनोनीत थे। इसके पश्चात 1962 में केंद्रशासित प्रदेश अधिनियम के अधीन 30 सदस्य चयन द्वारा और तीन मनोनीत सदस्यों की विधानसभा स्थापित की गई। 19 दिसंबर, 1969 से प्रशासक का पद मुख्य आयुक्त के स्थान पर उपराज्यपाल कर दिया गया। 21 जनवरी, 1972 को मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और 60 निर्वाचित सदस्यों की विधानसभा का गठन किया गया। इस विधानसभा में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए 19 सीट आरक्षित हैं। मणिपुर से लोकसभा के दो और राज्य सभा का एक प्रतिनिधि है। मणिपुर में कई जनजातिय कबीले हैं और वहां अलग राज्य, अलग देश जैसी मांग को ले कर कई आतंकवादी गुट सक्रिय हैं। अस्सी के दशक में सक्रिय पीएलए  ने खूब खूनखराबा किया था। कहा जाता है कि चीन बर्मा के रास्ते यहां आतंकवाद को पोशित करता है। वहां के खूनखराबे के मद्देनजर ही वहां अफस्पा लागू किया गया। और उसके चलते सैंकड़ों आम नागरिक मारे गए। राज्य की राजनीति आयाराम-गयाराम से बुरी तरह प्रभावित है। पूरी सियासत पर अंदरखाने में हथियारबंद आतंकवादियों का रूतबा चलता हे। राज्य ाके मिलने वाले बजट की तुलना में विकास नगण्य है और तभी यहां हर ताकतवर एक बार विधानसभा तक जाना चाहता है। हालांकि यहां कि विधानसभाएं दिल्ली जैसे इलाकों की नगर निगम सीट से भी छोटी है।ं पैसे, ताकत और कई बार खुद को जिंदा रखने के लिए लेाग राजनीति में खूब दल-बदल करते है।। वैचारिक प्रतिबद्धता जैसा आदर्श यहां की राजनीति में गौण ही है। 
मणिपुर के जमीनी हालात तो यही कहते हैं कि वहां चुनाव लड़ना दो एम यानि मनी व मॅसल का खेल है। अनशन समाप्त करने से कई उग्रवादी संगठन उनसे नाराज है, एक संगठन ने तो बाकायदा उनके गैरमणिपुरी से षादी करने पर परिणाम भुगतने की चुनौती भी दे दी है। वैसे भी भारत का इतिहास गवाह है क िजन आंदोलन की पीठ पर सवार हो कर सत्ता-शिखर तक पहुंचने के सभी प्रयोग असफल रहे हैं। सन 1977 की जनता पार्टी सरकार हो या असम में छात्र आंदोलन से उभरी प्रफुल्ल मांहंता का षासन या फिर फिलहाल दिल्ली का केजरीवाल तंत्र, ये अपने उद्देश्य में सफल नहीं रहे है।। वैसे भी अफसपा हटाना यदि राज्य के बस की बात होती तो कश्मीर में उसका असर दिखता। इरोम का सियासती दांव हो सकता है कि कुछ दिन हलचल मचाए, लेकिन जमीनी हालात बताते हैं कि उनका यह निर्णय फिलहाल उनके पाचन तंत्र की ही तरह अनिश्चित व अपरिपक्व है। आजादी की यह सालगिरह इरोम के जरिये यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या अभी भी स्वतंत्रता और स्वराज के लिए महात्मा गांधी द्वारा स्थापित किए गए मूल्य प्रासंगिक है? क्या हर सामाजिक समस्या के निदान के लिए सत्ता के शिखर पर पहुंचना अनिवार्य है ? क्या समाज उन लोगों को भूल रहा है जो सत्य, अहिंसा, जैसे मूल्यों पर आश्रित हैं ?

बुधवार, 10 अगस्त 2016

why police is alway far away from criminal

अपराधी आगे पुलिस पीछे

लग रहा है कि समूचा देश अपराध की चपेट में है- दुष्कर्म, छेड़छाड़, लूट की घटनाओं से आम जनता त्रस्त है। यह तो सामने आ गया है कि यदि पुलिस मुस्तैद होती, फोर्स का सही इस्तेमाल होता तो यह आग इतना विकराल रूप नहीं लेती। वैसे भी पिछले कुछ सालों से पूरे देश में सरेआम अपराधों की जैसे झड़ी ही लग गई है। भीड़भरे बाजार में जिस तरह से हथियारबंद अपराधी दिनदहाड़े लूटमार करते हैं, महिलाओं की चेन व मोबाइल फोन झटक लेते हैं, बैंक में लूट तो ठीक ही है, अब तो एटीएम मशीन उखाड़ कर ले जाते हैं, उससे साफ है कि अपराधी पुलिस से दो कदम आगे हैं और उन्हें कानून या खाकी वर्दी की परवाह नहीं है। पुलिस को मिलने वाला वेतन और कानून व्यवस्था को चलाने के लिए संसाधन जुटाने पर उसी जनता का पैसा खर्च हो रहा है जिसके जानोमाल की रक्षा का जिम्मा उन पर है। ऐसा नहीं है कि पुलिस खाली हाथ है, आए रोज कथित बाईकर्स गैंग पकड़े जाते हैं, बड़े-बड़े दावे भी होते हैं, लेकिन अगले दिन ही उससे भी गंभीर अपराध सुनाई दे जाते हैं। लगता है कि दिल्ली व पड़ोसी इलाकों में दर्जनों बाईकर्स-गैंग काम कर रहे हैं और उन्हें पुलिस का कोई खौफ नहीं है। जिस गति से आबादी बढ़ी उसकी तुलना में पुलिस बल बेहद कम है। मौजूद बल का लगभग 40 प्रतिशत नेताओं व अन्य महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा में व्यस्त है। खाकी को सफेद वर्दी पहना कर उन्हीं पर यातायात व्यवस्था का भी भार है। अदालत की पेशियां, अपराधों की तफ्तीश, आए रोज हो रहे दंगे, प्रदर्शनों को ङोलना पड़ता है। कई बार तो पुलिस की बेबसी पर दया आने लगती है। मौजूदा पुलिस व्यवस्था वही है जिसे अंग्रेजों ने 1857 जैसी बगावत की पुनरावृत्ति रोकने के लिए तैयार किया था। अंग्रेजों को बगैर तार्किक क्षमता वाले आततायियों की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने इसे ऐसे रूप में विकसित किया कि पुलिस का नाम ही लोगों में भय का संचार करने को पर्याप्त हो। आजादी के बाद लोकतांत्रिक सरकारों ने पुलिस को कानून के मातहत जन-हितैषी संगठन बनाने की बातें तो कीं, लेकिन इसमें संकल्पबद्धता कम और दिखावा यादा रहा। वास्तव में राजनीतिक दलों को यह समझते देर नहीं लगी कि पुलिस उनके निजी हितों के पोषण में कारगर सहायक हो सकती है और उन्होंने सत्तासीन पार्टी के लिए इसका भरपूर दुरुपयोग किया। परिणामत: आम जनता व पुलिस में अविश्वास की खाई बढ़ती चली गई और समाज में असुरक्षा और अराजकता का माहौल बन गया। शुरू-शुरू में राजनीतिक हस्तक्षेप का प्रतिरोध भी हुआ। थाना प्रभारियों ने विधायकों व मंत्रियों से सीधे भिड़ने का साहस दिखाया, पर जब ऊपर के लोगों ने स्वार्थवश हथियार डाल दिए तब उन्होंने भी दो कदम आगे जाकर राजनेताओं को ही अपना असली आका बना लिया। अंतत: इसकी परिणति पुलिस-नेता-अपराधी गठजोड़ में हुई जिससे आज पूरा समाज इतना त्रस्त है कि सवरेच न्यायालय तक ने पुलिस में कुछ ढांचागत सुधार तत्काल करने की सिफारिशें कर दी, लेकिन लोकशाही का शायद यह दुर्भाग्य ही है कि अधिकांश राय सरकारें सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को नजरअंदाज कर रही हैं। परिणति सामने है-पुलिस अपराध रोकने में असफल है। कानून व्यवस्था या वे कार्य जिनका सीधा सरोकार आमजन से होता है, उनमें थाना स्तर की ही मुख्य भूमिका होती है, लेकिन अब हमारे थाने बेहद कमजोर हो गए हैं। वहां बैठे पुलिसकर्मी आमतौर पर अन्य किसी सरकारी दफ्तर की तरह क्लर्क का ही काम करते हैं। थाने आमतौर पर शरीफ लोगों को भयभीत और अपराधियों को निरंकुश बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज जरूरत है कि थाने संचार और परिवहन व अन्य अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हांे। बदलती परिस्थितियों के अनुसार थानों के सशक्तीकरण जरूरी है। आज अपराधी थानों में घुस कर हत्या तक करने में नहीं डरते। कभी थाने उचाधिकारियों और शासन की प्रतिष्ठा की रक्षा के सीमावर्ती किलों की भांति हुआ करते थे। जब ये किले कमजोर हो गए तो अराजक तत्वों का दुस्साहस इतना बढ़ गया कि वे जिला पुलिस अधीक्षक से मारपीट और पुलिस महानिदेशक की गाड़ी तक को रोकने से नहीं डरते हैं। रही बची कसर जगह-जगह स्वीकृत चौकियों, पुलिस सहायता बूथों आदि की स्थापना ने पूरी कर दी है। इससे पुलिस-शक्ति के भारी बिखराव ने भी थानों को कमजोर किया है। थानों में स्ट्राइकिंग फोर्स नाममात्र की बचती है। इससे किसी समस्या के उत्पन्न होने पर वे त्वरित प्रभावी कार्रवाई नहीं कर पाते हैं।

Irom , political way ismore difficult than 16 year fast

आसान नहीं होगा इरोम का सत्ता-संघर्ष

                                                                     पंकज चतुर्वेदी

उस समय इंफाल में बादलों के कारण अंधेरा सा हो गया था, कोई चार बज कर बीस मिनट पर जब घडी के कांटे थे और इरोम ने अपनी जुबान पर उंगली से शहद चखा और उनकी आंखें से आंसुू की धारा निकल पडी। लगभग 16 साल तक लगातार पुलिस सुरक्षा या हिरासत में, नाक में नली से ग्लुकोज दिया जाता रहा, वह इतने सालों अपनी मां से भी नहीं मिली, बस एक जुनून कि मणिपुर में आतंकवाद के खात्मे के नाम पर निर्दाेष लेागों को मारने का लाईसेंस देने वाला ‘अफसपा’ यानि सशस्त्र बल विशेशाधिकार अधिनियम हटाया जाए। विडंबना देखोे कि जो देश यह दावा करता रहा कि उसे आजादी अहिंसा व शांति से किए गए सत्याग्रह से मिली, वहां इरेाम शर्मिला चानू के सत्याग्रह कासंदेश सत्ता शिखर तक सोलह साल मंे भी नहीं पहुंचा।  बहरहाल डाक्टरों का कहना है कि आने वाले दिन इरोम के लिए बेहद कठिन हैं, उन्हें सामान्य आहार लेने में सालों लगेंगे, हो सकता है कि  उनकी आंतें व लीवर इस लायक भी ना बचे हों कि चावल जैेसेे भोजन को पचा सकें।  इरोम की जुबान स्वाद भूल चुकी है और उन्हें जिस तरह कोई 5800 दिनों बाद शहद की मिठास का अहसास भी नहीं हुआ, शायद उसी तरह उन्हें अपने नए राजनीतिक संकल्प की जटिलता का अंदाजा नहंी है।
‘आयरन लेडी’ के नाम से मशहूर सन 2000 से जिनके लिए अस्पताल जेल बन चुका था, इरोम षर्मिला चानू के षरीर की आंतरिक संरचना भोजन को ग्रहण करने के लिए जिस तरह जर्जर हो चकी है, उसी तरह पूर्वाेत्तर की सियासत एक सामान्य लोकतांत्रिक स्वाद चखने की अनुभूति से परे हैं। मणिपुर के पडोसी राज्य अरूणाचल प्रदेश में सत्ता की उठा पटक की सियासत में एक कर्मठ, जमीन से उठे और युवा पूर्व मुख्यमंत्री को अवसाद  का शिकार बना दिया व उसकी दुखद परणिति उनकी आत्म हत्या से हुई, ,वह भी ठीक उसी दिन जब इरोम ने मणिपुर का मुख्यमंत्री बनने की अभिलाशा के साथ अपना अनशन तोड़ा।
 अपने षादी करने और लोकतांत्रिक व्यवसथा में षामिल हो कर अपनी मांग को नए सिरे से उठाने का संकलप दर्शाते हुए अपने इस फैसले पर शर्मिला ने कहा कि वे सरकार, मीडिया और आम लोगों से काफी निराश हैं जो उनके आंदोलन को समुचित महत्व नहीं दे रहे थे । लेकिन मरते दम तक अफस्पा को हटाने की मांग पर वे संकल्पबद्ध हैं । वे कहती हैं ,‘‘ हां, मैंने तरीका जरूर बदल दिया है। अब मैं संसदीय लोकतंत्र का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ूंगी और अपनी मांग को सदन से सड़क तक उठाऊंगी।’’
इसमें कोई षक नहीं कि इरोम षर्मिला की भूख हड़ताल एक ठहरी हुई सी खबर बन गया था, इतने साल में एक और ‘इरोम’ नहीं उभरी कि वह 16 साल नहीं तो 16 दिन भी उनका साथ देती। लोग अपने जीवन के आवश्यक काम कर रहे थे और जब समय बचता तो उनकी चर्चा भी करते। कहा जाता है कि कोई 15 दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने भी इरोम को अपना अनशन समाप्त करने की ताकत दी थी। इसमें सर्वाेच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि देश के जिन इलाकों में अफस्पा लागू है वहां से किसी नागरिक के मौलिक अधिकार के हनन की शिकायत अगर कोर्ट के सामने आती है तो वह उस पर सुनवाई करेगा। इसका अर्थ यह माना जा रहा है कि अशांत घोषित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को मिला असीमित संरक्षण अब समाप्त हो गया है। गौरतलब है कि यह फैसला मणिपुर से संबंधित मामलों में ही आया है। इस अदालती जीत के बाद अब जनता में वे एक सफलता कीक हानी ले कर जा सकती हैं और जनमत का समर्थन जुटा सकती हैं। वैसे उनके अनशन समाप्ति में उनके ब्रिटिश मूल के प्रेमी की भी बड़ी भूमिका है जिसने इस ठहरे अंादंोलन को नए सिरे से खड़ा करने की योजना बनाई व इरोम को इसके लिए राजी किया।
जिस तरह इरोम को यह समझने में सोलह साल लग गए कि भारत में अपनी मांग मनवाने के लिए अनशन कारगर नहीं हाते , इसके लिए या तो अदालत की षरण में जाओ, या फिर सत्ता की ताकत अपने हाथ रखो, षायद उनके सियासती पदार्पण के फैसले को भी समझने-आंकने में उन्हें समय लगे। जब इरोम 20 निर्दलीय विधायकों के साथ राज्य की ताकत अपने हाथ करने की बता कर रही है तो जरा मणपुर राज्य के सत्ता संघर्श पर भी गौर करें । मणिपुर की स्वतंत्रता और संप्रभुता 19वीं सदी के आरंभ तक बनी रही। उसके बाद सात वर्ष (1819 से 1825 तक) बर्मी शासकों ने यहां शासन किया। 1891 में मणिपुर ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया और 1947 में देश के साथ स्वतंत्र हुआ। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू होने पर यह एक मुख्य आयुक्त के अधीन भारतीय संघ के भाग ‘सी’ के राज्य के रूप में सम्मिलित हुआ। कालांतर में एक प्रादेशिक परिषद का गठन किया गया जिसमें 30 सदस्य चयन के द्वारा और दो सदस्य मनोनीत थे। इसके पश्चात 1962 में केंद्रशासित प्रदेश अधिनियम के अधीन 30 सदस्य चयन द्वारा और तीन मनोनीत सदस्यों की विधानसभा स्थापित की गई। 19 दिसंबर, 1969 से प्रशासक का पद मुख्य आयुक्त के स्थान पर उपराज्यपाल कर दिया गया। 21 जनवरी, 1972 को मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और 60 निर्वाचित सदस्यों की विधानसभा का गठन किया गया। इस विधानसभा में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए 19 सीट आरक्षित हैं। मणिपुर से लोकसभा के दो और राज्य सभा का एक प्रतिनिधि है। मणिपुर में कई जनजातिय कबीले हैं और वहां अलग राज्य, अलग देश जैसी मांग को ले कर कई आतंकवादी गुट सक्रिय हैं। अस्सी के दशक में सक्रिय पीएलए  ने खूब खूनखराबा किया था। कहा जाता है कि चीन बर्मा के रास्ते यहां आतंकवाद को पोशित करता है। वहां के खूनखराबे के मद्देनजर ही वहां अफस्पा लागू किया गया। और उसके चलते सैंकड़ों आम नागरिक मारे गए। राज्य की राजनीति आयाराम-गयाराम से बुरी तरह प्रभावित है। पूरी सियासत पर अंदरखाने में हथियारबंद आतंकवादियों का रूतबा चलता हे। राज्य ाके मिलने वाले बजट की तुलना में विकास नगण्य है और तभी यहां हर ताकतवर एक बार विधानसभा तक जाना चाहता है। हालांकि यहां कि विधानसभाएं दिल्ली जैसे इलाकों की नगर निगम सीट से भी छोटी है।ं पैसे, ताकत और कई बार खुद को जिंदा रखने के लिए लेाग राजनीति में खूब दल-बदल करते है।। वैचारिक प्रतिबद्धता जैसा आदर्श यहां की राजनीति में गौण ही है।
मणिुपर के जमीनी हालात तो यही कहते हैं कि वहां चुनाव लड़ना दो एम यानि मनी व मसल का खेल है। अनशन समाप्त करने से कई उग्रवादी संगठन उनसे नाराज है, एक संगठन ने तो बाकायदा उनके गैरमणिुपरी से षादी करने पर परिणाम भुगतने की चुनौती भी दे दी है। वैसे भी भारत का इतिहास गवाह है क िजन आंदोलन की पीठ पर सवार हो कर सत्ता-शिखर तक पहुंचने के सभी प्रयोग असफल रहे हैं। सन 1977 की जनता पार्टी सरकार हो या असम में छात्र आंदोलन से उभरी प्रफुल्ल मांहंता का षासन या फिर फिलहाल दिल्ली का केजरीवाल तंत्र, ये अपने उद्देश्य में सफल नहीं रहे है।। वैसे भी अफसपा हटाना यदि राज्य के बस कीब ता होती तो कश्मीर में उसका असर दिखता। इरोम का सियासती दांव हो सकता है कि कुछ दिन हलचल मचाए, लेकिन जमीनी हालता बताते हैं कि उनका यह निर्णय फिलहाल उनके पाचन तंत्र की ही तरह अनिश्चित व अपरिपक्व है।

शनिवार, 6 अगस्त 2016

why we not take lesson from disasters ?

आपदाओं से निबटने में हम असहाय क्यों रहते हैं 

                                                                                                                                          पंकज चतुर्वेदी



बीते दिनों अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर साईबर व रियल एस्टेट के लिए मशहूर गुड़गांव को दिल्ली से जोड़ने वाला राष्‍ट्रीय  राजमार्ग लगभग 16 घंटे जाम रहा, बरसात, जलभराव के चलते। यह रास्ता जयपुर , धारूहेड़ा व कई अन्य औद्योगिक क्षेत्रों की जीवन रेखा है। असहाय सा प्रशासन पूरी रात हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहा। अगली सुबह स्कूल बंद कर दिए व शहर में धारा 144 लगा दी। बरसात के कारण जल जमाव को निकालने, वाहनों को वैकल्पिक रास्ता देने, जाम में फंसे लेागों में बीमार , बुजुर्ग या बच्चों को निकालने जैसे कोई भी उपाय पर किसी ने विचार ही नहीं किया। कोई प्यासा था तो कोई भूखा, वे पचास सौ रूपए में पानी की बोतल खरीदने को मजबूर थे, लेकिन प्रशासन का प्रबंधन सुप्त था। यही नहंी उस रात के जिन कारणों पर अफसरान बड़े-बड़े प्रवचन दे रहे थे, देा दिन बाद फिर वैसा ही जाम वहां हो गया, यानि तय है कि उन्होंने अपने पूर्व के कटु अनुभवों से कुछ सीखा नहीं था। इन दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों में जल प्लावन की खबरें आ रही हैं। बहुत से इलाके तो षहरी हैं, लेकिन अधिकांश बाढ़ग्रस्त क्षेत्र आंचलिक  हैं। आंकड़ों में बताया जाता है कि अमुक स्थान पर केंद्र व राज्य के आपदा प्रबंधन दल के इतने जवान तैनात कर दिए गए लेकिन विडंबना है कि आपदा प्रबंधन व स्थानीय प्रशासन महकमें असहाय से हो जाते है और जब तक फौज व केंद्रीय अर्धसैनिक बल राहत कार्य का जिम्मा नहीं लेते तब तक अफरा तफरी ही मची रहती है।
कहने को देश में एक आपदा प्रबंधन महकमा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन आपदा प्रबंधन पर एक पोर्टल बनाया गया है-www.idrn.gov.in। लेकिन इस पर बिहार या असम के ताजा संकट के बारे में कोई सूचना नहीं है। कहने को तो सैकंडरी स्तर के स्कूल और आगे कालेज में आपदा प्रबंधन बाकायदा एक विशय बना दिया गया है और इसकी पाठ्य पुस्तकें बाजार में हैं। गुजरात में आए भूकंप के बाद सरकार की नींद खुली थी कि आम लोगों को ऐसी प्राकृतिक विपदाओं से जूझने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए। बिहार या गुड़गांव में उन पुस्तकों का ज्ञान कहीं भी व्यावहारिक होता नहीं दिखा- ना ही सरकारी स्तर पर और ना ही समाज में। बिहार , पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों सा असम में बाढ़ आना कोई अप्रत्याशित नहीं होता, यह पहले से तय होता है, इसके बावजूद  यहां तक कि नदी तटों के किनारे की बस्तियों व उनमें बाढ़ की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए , जरूरी नावों की व्यवस्था तक नहीं थी। बाढ़ या अन्य किसी प्राकृतिक विपदा के समय लोगों की जानमाल की रक्षा के मूलभूत सिद्धांत पर भीड सरकार निकम्मी ही साबित हुई। बिहार गवाह है कि पानी से बच कर भाग रहे लोगों को बीच मझधार में मुसटंडों ने लूट लिया था। बाढ़ से घिरे गांवों के खाली पड़े मकानों को नेपाल से आए बदमाशों ने लूट लिया। जब फौज की टुकड़ियां बुला ली गईं, तो उन्हें नाव या रस्से जैसे आधारभूत साधन नहीं दिए गए।
एनडीआरएफ कारगर संस्था है, लेकिन उनके संसाधन बेहद कम हैं। देश में कही भी बाढ़, भूकंप, बोरवेल में बच्चा गिरने या आगजनी जैसी बड़ी घटना हो जाएं, आखिर इलाज फौज को बुलाना ही रह जाता है। ऐसी घटनाएं देश में आए रोज होती हैं और नेता-प्रशासन नुकसान होने के बाद बयान-बहादुर बन कर राहत बांटने में जुट जाता है। लेकिन यह सवाल कहीं से नहीं उठा कि इन हालातों में प्रशासन का आपदा प्रबंधन महकमा क्या कर रहा था। बिहार, असम व कुछ अन्य राज्यों के दो दर्जन जिलों में हर साल पहले बाढ़ और फिर सूखे की त्रासदी होती है। पानी में फंसे लोगों को निकालना षुरू किया जाता है तो लोगों की भूख-प्यास सामने खड़ी दिखती है, पानी उतरता है तो बीमारियां सामने होती है। ंबीमारियों से जैसे-तैसे जूझते हैं तो पुनर्वास का संकट सामने दिखेगा। सवा अरब की आबादी वाला देश, जिसकी विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेना के मामले में दुनिया में तूती बोलती है; एक क्षेत्रीय विपदा के सामने असहाय सा है। राहत के कार्य ठीक उसी तरह चलते  हैं, जैसे कि आज से 60 साल पहले होते थे। पूरे देश से चंदा और सामान जुडा, मदद के लिए लोगों के हाथ आगे आए, लेकिन जरूरतमंदों तक उन्हें तत्काल पहुंचाने की कोई सुनियोजित नीति सामने नहीं थीै। यह हर हादसे के बाद होता है। कहने को देश में एक आपदा प्रबंधन महकमा है।
प्राकृतिक आपदा से संभावित इलाकों में एहतिहात ही सबसे बड़ा बचाव का जरिया होता है। कहने को तो सैकंडरी स्तर के स्कूल और आगे कालेज में आपदा प्रबंधन बाकायदा एक विशय बना दिया गया है और इसकी पाठ्य पुस्तकें बाजार में हैं। गुजरात में आए भूकंप के बाद सरकार की नींद खुली थी कि आम लोगों को ऐसी प्राकृतिक विपदाओं से जूझने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए। बिहार तो दूर दिल्ली में भी उन पुस्तकों का ज्ञान कहीं भी व्यावहारिक होता नहीं दिखा- ना ही सरकारी स्तर पर और ना ही समाज में। असल में हमें आपदा प्रबंधन और नए जामने की आपदाओं पर व्यावहारिक जानकारी स्कूल स्तर से देना चाहिए। साथ ही केवल सुरक्षा बलों को ही नहीं, सभी सरकारी निकायों के कर्मचारियों को इसका प्रशिक्षण अनिवार्य तथा विशम हालात में सभी कर्मचारियों को इसमंे लगाने पर नीति बनाना चाहिए। आपदा प्रबंधन की प्रायोगिक परीक्षा हो, स्नातक स्तर पर यह विशय हो और सबसे बड़ी बात हर संकट के बाद उससे मिले अनुभवों के आधार पर नीति बनाने का पूरा मेकेनिज्म हो।
बाढ़ या तूफान तो अचानक आ गए, लेकिन बुंदेलखंड सहित देश के कई हिस्सों में सूखे की विपदा से हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं। सूखा एक प्राकृतिक आपदा है और इसका अंदेशा तो पहले से हो जाता है, इसके बावजूद आपदा प्रबंधन का महकमा कहीं भी तैयार करता नहीं दिखता। भूख और प्यास से बेहाल लाखों लोग अपने घर-गांव छोड़ कर भाग जाते हैं। जंगलों में दुर्लभ जानवर और गांवों में दुधारू मवेशी लावारिसों की तरह मरते हैंे और स्कूल-कालेजों में आपदा प्रबंधन की ढोल पीटा जाता है, लेकिन धरातल पर इसका नामो-निशान नहीं होता।
यह बात पाठ्यक्रम और अन्य सभी पुस्तकों में दर्ज है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में पानी, मोमबत्ती, दियासलाई, पालीथीन षीट, टार्च, सूखा व जल्दी ना खराब होने वाला खाना आदि का पर्याप्त स्टाक होना चाहिए, इसके बावजूद बिहार , बंगाल या बंुदेलखंड में इन सब चीजों की जरूरत पर आपदा आने के महीनों बाद विचार किया जाता  है। विडंबना है कि पूरे देश का सरकारी  अमला आपदा आने के बाद हालात बिगड़ने के बाद ही चेतता है और फिर राहत बांटने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता है। राहत के कार्य सदैव से विवादो और भ्रश्टाचार की कहानी कहते रहे हैं। कई बार तो लगता है कि इन आपदाओं में राहत के नाम पर इतने पैसे की घोशणा सरकार करती है, इससे पूरे इलाके को लखपति बनाया जा सकता है, बशर्ते पैसा सीधे ही पीड़ित को बांट दिया जाए। हमारे देश में राहत कार्य के ‘‘भलीभांति’’(?) क्रि़यान्वयन के मद में कुल राशि का 40 फीसदी तक व्यय हो जाता है, जिसमें महकमों के वेतन-भत्ते, आवागमन, मानीटिरिंग आदि मद षामिल होते हैं। वास्त वे सरकार में बैठे लेगो आपदा से जूझने की पूर्व तैयारी से कहीं ज्यादा मुफीद मानते हैं संकट आ जाने के बाद उन्हें कुछ राहत बांटना, दौरे करना, क्योंकि इसमें वोट बैंक व अपनी बैकं देानेो के फल निहितार्थ होते हैं।

पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया
 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूशनल एरिया फेज-2
 वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376

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