संयुक्त राश्ट्र ने हाल ही में हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका को मलेरिया से मुक्त घेाशित कर दिया। इसमें कोई षक नहीं कि वहां की आबादी और क्षेत्रफल भारत से बहुत कम है, लेकिन यह भी मानना होगा कि हमारे पास संसाधन, मानव श्रम, शिक्षा, चिििकत्सा की मूलभूत सुविधांए श्रीलंका से कहीं ज्यादा हैं। दोनो देशेां की मौसमी और भौगोलिक परिस्थितयों में काफी समानता है, लेकिन पिछले अनुभव बानगी हैं कि हमारे देश में योजनाएं तो बहुत बनती हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन स्त्र पर लालफीताशाही के चलते अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। मलेरिया डेंगू , जापानी बुखार और चिकनगुनिया जैसे नए-नए संहारक शस्त्रों से लैसे हो कर जनता पर टूट रहा है और सरकारी महकमे अपने पुराने नुस्खों को
अपना कर उनके असफल होने का रोना रोते रहते हैं । यही नहीं हाथी पांव यानी फाईलेरिया के मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है । विशेषरूप से राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों(जहां हाल के वर्षों में अप्रत्याशित रूप से घनघोर पानी बरसा है), बिहार के सदानीरा बाढ़ग्रस्त जिलों मध्यप्रदेश ,पूर्वोंत्तर राज्यें व नगरीय-स्लम में बदल रहे दिल्ली कोलकाता जैसे महानगरों में जिस तरह मलेरिया का आतंक बढ़ा है, वह आधुनिक चिकित्या विज्ञान के लिए चुनौती है । सरकारी तंत्र पश्चिमी-प्रायांजित एड्स की काली छाया के पीछे भाग रहा है, जबकि मच्छरों की मार से फैले रोग को डाक्टर लाइलाज मानने लगे हैं । उनका कहना है कि आज के मचछर मलेरिया की प्रचलित दवाओं को आसानी से हजम कर जाते हैं । दूसरी ओर घर-घर में इस्तेमाल हो रही मच्छर -मार दवाओं के बढ़ते प्रभाव के कारण मच्छर अब और जहरीला हो गया है । देश के पहाड़ी इलाकों में अभी कुछ साल पहले तक मच्छर देखने को नहीं मिलता था, अब वहां रात में खुले में साने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । बहरहाल यूएन ने दक्षिण-पूर्व एशिया के जिन 35 देशो में सन 2030 तक मलेरिया से पूरी तरह मुक्ति का लक्ष्य रखा है, उसमें भारत भी है। श्रीलंका ेक अलावा मालदीव भी मलेरिया-मुक्त हो चुका है। यह भी बानगी है कि सन 2014 में हमारे मलेरिया उन्मूलन के कुल बजट का 90 फीसदी प्रशासनीक व्यय में ही खप गया। मेडिकेटेड मच्छरदानी वितरित करने के लक्ष्य की पूर्ति एक फीसदी ही रही। यह आंकड़े हमारी मलेरिया से लड़ने की इच्छा-शक्ति की बानगी हैं।
श्रीलंका भाारी बारिश, ढेर सरी जल संरचनाओं, व नमी वले घने जंगलों वाला देश है जहां मच्छर और उससे जनित रोगों के उपजने का अनुकूल परिवेश हुआ करता था। वहां दो दशक से मलेरिया-मुक्त अभियान का असर था कि सन 2006 में वहां मलेरिया के मामले 1000 से कम दर्ज हुए। अक्तूबर-2012 में इसके रोगी षून्य रहे और उसके बाद पिछले साढे तीन साल में एक भी मलेरिया का मरीज सामने नहीं आया। वहीं भारत में सन् 1958 में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप शुरू हुए राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम को शुरूआती दौर में खासी सफलता मिली थी । 1965 में तो मलेरियाग्रस्त रोगियों की सालाना संख्या महज एक लाख थी । सरकारी रिकार्ड के मुताबिक उस साल देशभर में कोई भी मलेरिया के कारण मरा नहीं । सनद रहे कि आजादी के समय हर साल साढ़े सात करोड़ लोगों के मलेरिया की चपेट में आने व आठ लाख लोगों की इससे मौत होने के सरकारी आंकड़े दर्ज हुए थे । साठ के दशक में ‘‘ ना मच्छर रहेगा और ना ही मलेरिया’’ का नारा काफी हद तक सफल रहा । लेकिन सत्तर का दशक आते-आते इस नारे में कुछ बदलाव आ गया -‘‘ मच्छर तो रहेगा, लेकिन मलेरिया नहीं ’’ । देश के स्वास्थ्य विभाग के रजिस्टर बताते हैं कि 1976 में मलेरिया ने फिर बाढ़ तोड़ दी थी । इस साल 64 लाख से अधिक लोग मलेरिया की चपेट में आए । सरकार एक बार फिर चेती और 1983 में मलेरियाग्रस्त लोगों की संख्या 16 लाख 65 हजार हो गई । 1992 में मलेरिया के 21.26 लाख मामले प्रकाश में आए । 1997 में यह संख्या बढ़ कर 25.53 लाख हो गई । यही नहीं इस दौरान मलेरिया से मरने वालों की संख्या 422 से बढ़ कर 711 हो गई । 1998 में मरने वालों की ंसख्या 1010 और उसके आगे के सालों में इसमें सतत बढ़ौतरी होती रही है । अनुमान है कि इस साल(31 मार्च को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में )यह संख्या दो हजार के पार है । हांलाकि पिछले दिनों इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च द्वारा श्री पदम सिंह प्रधान की अध्यक्षता में गठित 16 सदस्यांे की कमेटी ने बेहद गंभीर चेतावनी देते हुए बताया है कि भारात में मलेरिया से मरने वालों की असल संख्या , सरकारी आंकडात्रें के चालीस गुणा अधिक होती हे। इस समिति ने पाया कि भारत में हर साल औसतन चालीस हजार लोग मच्छर के कारण काल के गाल में समा जाते हैं। इन दिनों पश्चिम बंगाल में मलेरिया का आतंक ज्यादा है । सन 2006 में वहां मलेरिया के 18 हजार से अधिक मामले और 55 मौतें दर्ज की गईं ।सन 2015 में हमारे यहां चिकनगुनया के 27,553 अैर डेंगू के 99,913 मामले दर्ज हुए थे। इस साल तो जुलाई तक ही मलेरिया के 4,71,083 मरीज आए जिनमें से 119 की मौत हो गई। 31 अगस्त तक चिकनगुनया के 12,555 और डेंगेू के 27,889 मामले प्रकाश में आए, जबकि डेंगू से मरने वालों की संख्या 60 रही। सनद रहे रोग का यह भयावह रूप् हमारे र्प्यटन उद्योग का सबसे बड़ा दुश्मन है।
शुरूआती दिनों में शहरों को मलेरिया के मामले में निरापद माना जाता था और तभी शहरों में मलेरिया उन्मूलन पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया । 90 के दशक में भारत में औद्योगिकीकरण का विकास हुआ । नए कारखाने लगाने के लिए ऐसे इलाकों के जंगल काटे गए, जिन्हें मलेरिया-प्रभावित वन कहा जाता था । ऐस जंगलों पर बसे शहरों में मच्छरों को बना-बनाया घर मिल गया । जर्जर जल निकास व्यवस्था, बारिश के पानी के जमा होने के आधिक्य और कम क्षेत्रफल में अधिक जनसंख्या के कारण नगरों में मलेरिया के जीवाणु तेजी से फल-फूल रहे हैं । भारत में मलेरिया से बचाव के लिए सन् 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था । गांव-गांव में डी.डी.टी. का छिड़काव और क्लोरोक्वीन की गोलियां बांटने के ढर्रे में सरकारी महकमे भूल गए कि समय के साथ कार्यक्रम में भी बदलाव जरूरी है । धीरे-धीरे इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता मच्छरों में आ गई । तभी यह छोटा सा जीव अब ताकतवर हो कर निरंकुश बन गया है । पिछले कुछ सालों से देश में कोहराम मचाने वाला मलेरिया सबटर्मियम या पर्निसियम मलेरिया कहलाता है । इसमें तेज बुखार के साथ-साथ लकवा, या बेहोशी छा जाती है । हैजानुमा दस्त, पैचिस की तरह शौच में खून आने लगता है । रक्त-प्रवाह रुक जाने से शरीर ठंडा पड़ जाता है । गांवों में फैले नीम-हकीम ही नहीं , बड़े-बड़े डिगरी से लैसे डाक्टर भी भ्रमित हो जाते हैं कि दवा किस मर्ज की दी जाए। डाक्टर लेबोरेट्री- जांच व दवाएं बदलने में तल्लीन रहते हैं और मरीज की तड़प-तड़प कर मौत हो जाती है । इसे समझना बड़ा मुश्किल रहता है कि यह नए जमाने का मलेरिया है । मध्यप्रदेश में घर-घर में लोगों को चलने-फिरने से लाचार बनाने वाले चिकनगुनिया के इलाज में भी डाक्टरों के साथ ऐसे ही संशय की स्थिति रहती है ।
हालांकि ब्रिटिश गवर्नमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस(पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपोर्ट में बीस साल पहले ही चेता दिया गया था कि दुनिया के गर्म होने के कारण मलेरिया प्रचंड रूप ले सकता है । गर्मी और उमस में हो रहा इजाफा खतरनाक बीमारियों को फैलाने वाले कीटाण्ुाओं व विषाणुओं के लिए संवाहक के माकूल हालात बना रहा है । रिपोर्ट में कहा गया था कि एशिया में तापमान की अधिकता और ठहरे हुए पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल अवसर मिल रहा है । कहा तो यह भी जाता है कि घरों के भीतर अंधाधुंध शौचालयों के निर्माण व शैाचालयों के लिए घर के नीचे ही टेंक खोदने के कारण मच्छरों की आबादी उन इलाकों में भी ताबड़तोड़ हो गई है, जहां अभी एक दशक पहले तक मच्छर होते ही नहीं थे । सनद रहे कि हमारे यहां स्वच्छता अभियान के नाम पर गांवों में जम कर षौचालय बनाए जा रहे हैं, जिनमें ना तो पानी है, ना ही वहां से निकलने वाले गंदे पानी की निकासी की मुकम्मल व्यवस्था। राजधानी दिल्ली में ही जल-भराव, कूड़े के निबटान, मच्छरों के लार्वा विकसित होने से रोकने के मामले में फिसड्डी हैं। यहां मुख्य सडत्रकां पर थोड़ी सी बरसात का पानी ठहर जाता है। हर रोज नौ लाख टन कचरा बगैर ठिकाने लगाए पडा रहता है।
हरित क्रांति के लिए सिंचाई के साधन बढ़ाने और फसल को कीटों से निरापद रखने के लिए कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल ने भी मलेरिया को पाला-पोसा है । बड़ी संख्या में बने बांध और नहरों के करीब विकसित हुए दलदलों ने मच्छरों की संख्या बढ़ाई है । रही बची कसर फसलों में डीडीटी ऐसे ही कीटनाशकों के बेतहाशा दुरूपयोग ने पूरी कर दी । खाने के पदार्थों में डीडीटी का मात्रा जहर के स्तर तक बढ़ने लगी, वहीं दूसरी ओर मच्छर ने डीडीटी को डकार लेने की क्षमता विकसित कर ली । बढ़ती आबादी के लिए मकान, खेत और कारखाने मुहैया करवाने के नाम पर गत् पांच दशकों के दौरान देश के जंगलों की निर्ममता से कटाई की जाती रही है । कहीं अयस्कों की खुदाई तो जलावन या फर्नीचर के लिए भी पेड़ों को साफ किया गया । जहां 1950 में 40.48 मिलीयन हेक्टर में हरियाली का राज था, आज यह सिमट कर 22 मिलीयन के आसपास रह गया है । हालांकि घने जंगल मच्छर व मलेरिया के माकूल आवस होते हैं और जंगलों में रहने वचाले आदिवासी मलेरिया के बड़े शिकर होते रहे हैं । लेकिन यह भी तथ्य है कि वनवासियों में मलेरिया के कीटाणुओं से लड़ने की आंतरिक क्षमता विकसित हो चुकी थी । जंगलों के कटने से इंसान के पर्यावास में आए बदलाव और मच्छरों के बदलते ठिकाने ने शहरी क्षेत्रों में मलेरिया को आक्रामक बना दिया ।
मलेरिया उपचार की सर्वाधिक प्रचलित दवा ‘‘ क्लोरोक्वीन’’ है । आज यह पूरी तरह निष्प्रभावी है, उलटे इसके विषम असर हो रहे हैं, इसके बावजूद इसकी बिक्री व वितरण धड़ल्ले से हो रहा है । सन 2000में तो देश के 14 राज्यों के कई जिलों में बाकायदा इस पर रिसर्च हुआ था, जिसमें पाया गया था कि मच्छरों में पाया जाने वाला पी.फाल्सीपेरम परजीवी इस दवा का आदी हो चुका है । उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, पश्चिम बांगाल के पुरूलिया, बोगमुंडी व जलपाईगुड़ी , उड़ीसा के क्योंझर, गुजरात के पंचमहल,कच्छी , कोलार, महाराष्ट्र के चंद्रपुर, असम के कार्बी, नोगांव दरांग , अरूणाचल प्रदेश के लोहित तथा तिराब, मिजोरम के आयजोल,लुंगलेई और नगालैंड के सभी जिलों में यह दवा मलेरिया के रोगियों पर बेअसर साबित हुई है । वैसे इन जिलों में अब क्लोक्वीन की सप्लाई बंद कर सल्फाडाक्सीन भेजी जा रही है ।
एक बात और ग्रामीण भारत में पूरा मलेरिया अभियान छह लाख ‘‘आशा’ कार्यकर्ताओं के बल पर खड़ा है । इन्हें ना तो समय पर वेतन मिल रहा है, ना ही पर्याप्त परीक्षण किट या दवाएं , कुल मिला कर वे स्वयं निराशा में रहती हैं। वहीं सरकारी अस्पतालों के हालात बहुत बुरे हैं, 80 प्रतिशत अस्पतलों में क्षमता से दोगुने मरीज भरती हैं। दिल्ली में ही एक बिस्तर पर पदो-तीन मरीज डाले जा रहे हैं।
जहां सारी दुनिया मलेरिया से निबटने के प्रयास कर रही है, वहीं भारत सरकार इसके प्रति लापरवाह ही है । जान कर आश्चर्य होगा कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में मलेरिया की चर्चा तक नहीं है । जब देश की आबादी, मच्छर, मलेरिया , महंगाई सभी कुछ में बढ़ौतरी हो रही है।, ऐसे में मलेरिया के बजट में पहले से भी कमी की जा रही है । सनद रहे कि मलेरिया से जूझने के कुल बजट से अधिक तो एड़स के नारे-पोस्टरों पर खर्च किया जा रहा है । वैसे भी मलेरिया बजट की कुल राशि का तीन-चौथाई तो गैर-योजना मद में जाता है । दिल्ली में इस बार पानी अच्छा बरसा तो नगर निगम की पोल खुल गई, ना नाले साफ ना मुहल्ले, तभी एनसीआर के अस्पताल मच्छर-जनित रेागों से पटे पड़े हैं।
महालेखा नियंत्रक व परीक्षक(सीएजी) की पिछली कई रिपोर्ट गवाह हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे राजयों में मलेरिया से पीड़ित अस्पताल पहुंचने वाले आधे से अधिक मरीजों का कोई इलाज ही नहीं किया गया । मच्छर से निबटने के लिए मंजूर पैसे से कारें खरीीद कर आला -अफसरों को उपकृत करना, एबीईआर यानी रक्त परीक्षण, डीडीटी का छिड़काव आदि कार्य कागजों पर ही होते रहे हैं ।
विडंबना है कि हमारे देश में मलेरिया से निबटने की नीति ही गलत है - पहले मरीज बनो, फिर इलाज होगा । जबकि होना यह चाहिए कि मलेरिया फैल ना सके, इसकी कोशिश हों । मलेरिया प्रभावित राज्यों में पेयजल या सिंचाई की योजनाएं बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ठहरा हुआ पानी कहीं ‘‘ मच्छर-प्रजनन केंद्र’’ तो नहीं बन रहा है । धरती का गरम होता मिजाज जहां मलेंरिया के माकूल है, पहीं एंटीबायोटिक दवाओं के मनमाने इस्तेमाल से लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता घट रही है । नीम व ऐसी ही वनोषधियों से मलेरिया व मच्छर उन्मूलन की दवाओं को तैयार करना हमारी प्राथमिकता होना चाहिए ।
डेंगू का दंश
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हर शहर-गांव , कालेानी में डेंगू के मरीजों की बाढ़ अस्पतालोे की ओर आ रही है । गाजियाबाद जैसे जिलों के अस्पताल तो बुखार-पीड़ितों से पटे पड़े हैं। अब तो इतना खौफ है कि साधारण बुखार का मरीज भी बीस-पच्चीस हजार रूपए दिए बगैर अस्पताल से बाहर नहीं आता है। डाक्टर जो दवाएं दे रहे हैं उनका असर भगवान-भरोसे है । वहीं डेंगू के मच्छरों से निबटने के लिए दी जा रही दवाएं उलटे उन मच्छरों को ताकतवर बना रही हैं ।
डेंगू फैलाने वाले ‘एडिस’ मच्छर सन 1953 में अफ्रीका से भारत आए थे । उस समय कोई साढ़े सात करोड़ लोगों को मलेरिया वाला डेंगू हुआ था , जिससे हजारों मौतें हुई थीं । अफ्रीका में इस बुखार को डेंगी कहते हैं । यह तीन प्रकार को होता है । एक वह, जोकि चार-पांच दिनों में अपने आप ठीक हो जाता है, लेकिन मरीज को महीनों तक बेहद कमजोरी रहती है । दूसरे किस्म में मरीज को हेमरेज हो जाता है, जो उसकी मौत का कारण भी बनता है । तीसरे किस्म के डेंगू में हेमरेज के साथ-साथ रोगी का ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, इतना कि उसके मल -द्वार से खून आने लगता है व उसे बचाना मुश्किल हो जाता है ।
विशेषज्ञों के मुताबिक डेंगू के वायरस भी चार तरह के होते हैं- सीरो-1,2, 3 और 4। यदि किसी मरीज को इनमें से किन्हीं दो तरह के वायरस लग जाएं तो उसकी मौत लगभग तय होती है । ऐसे मरीजों के शरीर पर पहले लाल-लाल दाने पड़ जाते हैं । इसे बचाने के लिए शरीर के पूरे खून को बदलना पड़ता है । सनद रहे कि डेंगू से पीड़ित मरीज को 104 से 107 डिग्री बुखार आता है । इतना तेज बुखार मरीज की मौत का पर्याप्त कारण हो सकता है । डेंगू का पता लगाने के लिए मरीज के खून की जांच करवाई जाती है, जिसकी रिपोर्ट आने में देा-तीन दिन लग जाते हैं । तब तक मरीज की हालत लाइलाज हो जाती है । यदि इस बीच गलती से भी बुखार उतारने की कोई उलटी-सीधी दवा ले ली तो लेने के देने पड़ जाते हैं ।
भारतीय उपमहाद्वीप में मच्छरों की मार बढ़ने का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे दलदली क्षेत्र को कहा जा रहा है । थार के रेगिस्तान की इंदिरा गांधी नहर और ऐसी ही सिंचाई परियोजनाओं के कारण दलदली क्षेत्र तेजी से बढ़ा है । इन दलदलों में नहरों का साफ पानी भर जाता है और यही ‘एडीस’ मच्छर का आश्रय-स्थल बनते हैं । ठीक यही हालत देश के महानगरों की है जहां, थेाड़ी सी बारिश के बाद सड़कें भर जाती हैं । ब्रिटिश गवरमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस(पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपेार्ट के मुताबिक दुनिया के गरम होने के कारण भी डेंगूरूपी मलेरिया प्रचंड रूप धारण कर सकता है । जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि गरम और उमस भरा मौसम, खतरनाक और बीमारियों को फैलाने वाले कीटाणुओं और विषाणुओं के लिए संवाहक जीवन-स्थिति का निर्माण कर रहे हैं । रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि एशिया में तापमान की अधिकता और अप्रवाही पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल माहौल मिल रहा है ।
बहरहाल डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं और नगर निगम के कर्मचारी घर-घर जा कर मच्छर के लार्वा चैक करने की औपचारिकता निभा रहे हैं । सरकारी लाल बस्तों में दर्ज है कि हर साल करोड़ो रूपए के डीडीटी, बीएचसी, गेमैक्सिन, वीटेकस और वेटनोवेट पाउडर का छिड़काव हर मुहल्ले में हो रहा है, ताकि डंेगू फैलाने वाले मच्छर ना पनप सकें । हकीकत तो यह है कि मच्छर इन दवाओं को खा-खा कर और अधिक खतरनाक हो चुके हैं । यदि किसी कीट को एक ही दवा लगातार दी जाए तो वह कुछ ही दिनों में स्वयं को उसके अनुरूप ढ़ाल लेता है । हालात इतने बुरे हैं कि ‘पाईलेथाम’ और ‘मेलाथियान’ दवाएं फिलहाल तो मच्छरों पर कारगर हैं, लेकिन दो-तीन साल में ही ये मच्छरों को और जहरीला बनाने वाली हो जाएंगी ।
भले की देश के मच्छरों ने अपनी खुराक बदल दी हो, लेकिन अभी भी हमारा स्वास्थ्य -तंत्र ‘‘ क्लोरोक्वीन’’ पर ही निर्भर है । हालांकि यह नए किस्म के मलेरिया यानी डेंगू पर पूरी तरह अप्रभावी है । डेंगू के इलाज में ‘‘प्राइमाक्वीन कुछ हद तक सटीक है, लेकिन इसका इस्तेमाल तभी संभव है, जब रोगी के शरीर में ‘‘ जी-6 पी.डी.’’ नामक एंजाइम की कमी ना हो । यह दवा रोगी के यकृत में मौजूद परजीवियों का सफाया कर देती है । विदित हो कि एंजाइम परीक्षण की सुविधा देश के कई जिला मुख्यालयों पर भी उपलब्ध नहीं है, अतः इस दवा के इस्तेमाल से डाक्टर भी परहेज करते हैं । इसके अलावा ‘‘क्वीनाईन ’’ नामक एक महंगी दवा भी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत आम मरीज की पहुंच के बाहर है ।
पंकज चतुर्वेदी
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