टके सेर टमाटर
जिले में 2500 हेक्टेयर में टमाटर बोया जाता है, जिससे लगभग 700 कुंटल प्रति हेक्टेयर की फसल होती रही है। पिछले साल इस समय थोक मंडी में टमाटर के दाम चार से पांच रुपए किलो थे, जो आज 75 पैसे भी नहीं है। इसी साल जनवरी-फरवरी में मध्य प्रदेश के मालवा अंचल की पेटलावद इलाके में इस बार कोई पच्चीस सौ हेक्टेयर में टमाटर बोए गए थे, फसल भी बंपर हुई, लेकिन जब किसान माल लेकर मंडी पहंुचा तो पाया कि वहां मिल रहे दाम से तो उसकी लागत भी नहीं निकलेगी। हालत ये रहे कि कई सौ एकड़ में पके टमाटरों को किसानों ने तुड़वाया भी नहीं।
सोने की खानों के लिए मशहूर कर्नाटक के कोलार में भी टमाटर किसान बंपर फसल हाने के बावजूद बर्बाद हो गए हैं। ऐसी ही खबरें राजस्थान के सिरोही जिले की भी हैं। सनद रहे, टमाटर उत्पादन के मामले में भारत चीन के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर आता है। विडंबना है कि न तो हमारे यहां टमाटर की फसल के वाजिब दाम मिलने की कोई नीति है, न ही जल्दी सड़ने वाली इस फसल को संरक्षित करने के कोई उपाय और न ही इससे बनने वाले सॉस, प्यूरी या चटनी बनाने के स्थानीय कारखाने। किसान पूरी तरह मंडी के दलालों का गुलाम होता है। इस बार तो किसान की कमर नोटंबदी से उपजे नगदी के संकट ने भी तोड़ी। ये न तो पहली बार हो रहा है और न ही अकेले टमाटर के साथ हो रहा है।
अभी एक साल पहले ही बस्तर में मिर्ची की बेहतरीन फसल हुई। वैसे ही वहां नक्सलियों और सुरक्षा बलों दोनों की बंदूकों से आम लोगों का जीना दूभर होता है, ऊपर से किसान इस बात से आहत रहा कि 15 से 20 रुपए प्रति किलो वाली हरी मिर्च के दाम पांच-छह रुपए भी नहीं मिले। याद करंे, कुछ महीनों पहले बाजार में प्याज की कमी इन दिनों समाज से ज्यादा सियासत, लेखन का मसला बन गया था। जब-तब ऐसी दिक्कतें खड़ी होती हैं, निर्यात पर रोक, आयात पर जोर, सरकार और विरोधी दलों द्वारा कम कीमत पर स्टॉल लागने जैसे तदर्थ प्रयोग होते रहते हैं। इस बात को बेहद शातिर तरीके से छुपाया जाता है कि खेतों मेें पैदा होने वाली उपज की बाजार में कमी की असली वजह उचित भंडारण, बिचौलियों की अफरात और प्रसंस्करण उद्योगों की आंचलिक क्षेत्रों में गैर मौजूदगी है। अभी जब लोग प्याज की राखी बांध रहे हैं, तब प्याज के साथ चोली-दामन का साथ निभाने वाले दो उत्पाद, लहसुन और आलू के दाम मंडी में इतने कम हैं कि किसान उन्हें ऐसे ही फेंक रहा है। यूपी के इटावा इलाके में कुछ दिनों पहले तक बीस हजार रुपए कुंटल बिकने वाला लहसुन हजार रुपए से नीचे आ गया है। ठीक यही हाल आलू का है। जिन किसानों ने बैंक से कर्ज लेकर उम्मीदों की फसल बोई थी, वह अब हताशा में बदल चुकी है। अब कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदश में आलू की इतनी अधिक पैदावार हो गई है कि बामुश्किल तीन सौ रुपए कुंटल का रेट किसान को मिल पा रहा है। राज्य के सभी कोल्ड स्टोरेज ठसाठस भर गए हैं।
जाहिर है कि आने वाले दिनों में आलू मिट्टी के मोल मिलेगा। यह पहली बार नहीं हुआ है कि जब किसान की हताशा आम आदमी पर भारी पड़ी है। पूरे देश की खेती-किसानी अनियोजित, शोषण की शिकार व किसान विरोधी है। तभी हर साल देश के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फेंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम, अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए। शायद इस छोटी सी जरूरत को मुनाफाखोरों और बिचौलियों के हितों के लिए दरकिनार किया जाता है। तभी रिटेल में विदेशी निवेश की योजना में सब्जी-फलों के संरक्षण के लिए ज्यादा जगह बनाने का उल्लेख किसानों को लुभावना लग रहा है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है। यह विडंबना ही है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है। पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा, कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों। किसान जब फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है। पिछले साल उत्तर प्रदेश में 88 लाख मीट्रिक टन आलू हुआ था तो आधे साल में ही मध्य भारत में आलू के दाम बढ़ गए थे। इस बार किसानों ने उत्पादन बढ़ा दिया, अनुमान है कि इस बार 125 मीट्रिक टन आलू पैदा हो गया है। कोल्ड स्टोरेज की क्षमता बामुश्किल 97 लाख मीट्रिक टन की है। जाहिर है कि आलू या तो सस्ता बिकेगा या फिर किसान उसे खेत में ही सड़ा देगा। आखिर आलू उखाड़ने, मंडी तक ले जाने के दाम भी तो निकलने चाहिए। हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कें कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिचोंर् को या फिर अंगूर को सड़क पर लावारिस फेंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैें। तीन महीने तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देखकर उपजी खुशी किसान के होठों पर ज्यादा देर नहीं रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीददार ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है। घर की नई छप्पर, बहन की शादी, माता-पिता की तीर्थयात्रा, न जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर मिर्चियों के साथ फेंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता, खेती के लिए बीज, खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारों किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक ही नहीं, पूरे देश में ऐसा लगभग हर साल किसी न किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी न निकले। देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है, तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेशियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आश्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनाएं हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती हैं। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब शुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत गिरा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरीदी केंद्र तक ढोकर ले जाना, फिर घूस देकर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अत: वह खड़ी फसल जलाकर अपने अरमानों की दुनिया खुद ही फूंक लेता है। आज उसी गन्ने की कमी के कारण देश में चीनी के दाम आम लोगों के मुंह का स्वाद कड़वा कर रहे हैं।कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तेल-बीजों यानी तिलहनों और अन्य खाद्य पदाथोंर् के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे, इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें। यदि किसान रूठ गया तो ध्यान रहे, कारें तो विदेश से मंगवाई जा सकती हैं, सवा अरब की आबादी का पेट भरना संभव नहीं होगा।