बीते कई सालों से यही हो रहा है - दिवाली के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट आतिशबाजी को ले कर कुछ पाबंदी लगाती है , कथित हिंदूवादी इस पर आपत्ति करते हैं, कुछ लोग इसका पालन करते हैं . आंकड़ों की चीख होती है और फिर मसला अगली दिवाली तक तल जाता है, असल में हवा में बढ़ रहे जहर और उसमें आतिशबाजी की खलनायकी पर सारे साल विमर्श होना चाहिए, लोगों को पुरे साल इसकी विभीषिका के प्रति जागरूक करने और स्वत ही इसका परित्याग करने के लिए प्रेरित करने के पाध्यक्र्म, प्रशिक्षण, लेखन आदि होना चाहिए , वरना किसी दिन अदालती आदेश भी मखौल बन कर रह जायेंगे और इन्सान जहर भरी हवा में साँस ले कर मरने को विवश.
इस सप्ताह मेरे विमर्श का मसला यही है, इस आलेख को विस्तार से पढ़ें, विचार करने और क्रियान्वयन करें -
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इंतजार ना करें अगली दीवाली का
पंकज चतुर्वेदी
हालांकि सर्वाेच्च अदालत ने भी पर्व की जन भावनाओं का खयाल कर आतिशबजी पर पूर्ण पाबंदी से इंकार कर दिया, लेकिन बीती दीपावली की रात दिल्ली व देश में जो कुछ हुआ, उससे साफ है कि आम लोग कानून को तब तक नहीं मानते है,जब तक उसका कड़ाई से पालन ना करवाया जाए। पूरे देश में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लेागों की जिंदगी तीन साल कम हो गई। अकेले दिल्ली में 300 से ज्यादा जगह आग लगी व पूरे देश में आतिशबाजी के कारण लगी आग की घटनाओं की संख्या हजारों में हैं। इसका आंकड़ा रखने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने लेाग आतिशबाजी के धुंए से हुई घुटन के कारण अस्पताल गए। दीपावली की रात प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी व देश के लिए अनिवार्य ‘‘स्वच्छता अभियान’’ की दुर्गति देशभर की सड़कों पर देखी गई।
दीपावली की अतिशबाजी ने राजधानी दिल्ली की आवोहवा को इतना जहरीला कर दिया गया कि बाकायदा एक सरकारी सलाह जारी की गई थी कि यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। फैंफडों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिक्यूलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली के बादयह सीमा कई जगह एक हजार के पार तक हो गई। ठीक यही हाल ना केवल देश के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेशेां की राजधानी व मंझोले षहरों के भी थे । सनद रहे कि पटाखें जलाने से निकले धुंए में सल्फर डाय आक्साईड, नाईट्रोजन डाय आक्साईड, कार्बन मोनो आक्साईड, षीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये षरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मैाजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदूशण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाईकल किया जाए तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके विशैले कण जमीन में जज्ब हो कर भूजल व जमीन को स्थाई व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे षोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं। दिल्ली के दिलशाद गार्डन में मानसिक रोगों को बड़ा चिकित्सालय है। यहां अधिसूचित किया गया है कि दिन में 50 व रात में 40 डेसीबल से ज्यादा का षोर ना हो। लेकिन यह आंकड़ा सरकारी मॉनिटरिंग एजेंसी का है कि दीपावली के पहले से यहां षोर का स्तर 83 से 105 डेसीबल के बीच है। दिल्ली के अन्य इलाकों में यह 175 तक पार गया है।
हालांकि यह सरकार व समाज देानेां को भलीभांति जानकारी थी कि रात 10 बजे के बाद पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में दिया था जो अब अब कानून की शक्ल ले चुका है। 1998 में दायर की गई एक जनहित याचिका और 2005 में लगाई गई सिविल अपील का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे। 18 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी और न्यायमूर्ति अशोक शर्मा ने बढ़ते शोर की रोकथाम के लिए कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों की आड़ में दूसरों को तकलीफ पहुंचाने, पर्यावरण को नुकसान करने की अनुमति नहीं देते हुए पुराने नियमों को और अधिक स्पष्ट किया, ताकि कानूनी कार्रवाई में कोई भ्रम न हो। अगर कोई ध्वनि प्रदूषण या सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ भादंवि की धारा 268, 290, 291 के तहत कार्रवाई होगी। इसमें छह माह का कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। पुलिस विभाग में हेड कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम अधिकारी को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई का अधिकार है। इसके साथ ही प्रशासन के मजिस्ट्रियल अधिकारी भी कार्रवाई कर सकते हैं। विडंबना है कि इस बार रात एक बजे तक जम कर पटाखें बजे, ध्वनि के डेसीमल को नापने की तो किसी को परवाह थी ही नहीं, इसकी भी चिंता नहीं थी कि ये धमाके व धुआं अस्पताल, रिहाईशी इलााकों या अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में बेरोकटोक किए जाते रहे । असल में आतिशबाजी को नियंत्रित करने की षुरूआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होना चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले एक भी पटाखे पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं है। सूत्रों के मुताबिक बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आए पटाखों में जहर की मात्रा असीम है व इस पर कहीं कोई रोक टोक नहीं है। कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। शांति क्षेत्र जैसे अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर व सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर 24 घंटे में कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन विडंबना है कि आतिशबाजी बेचने पर रोक लगाने के ओदश के कारण कुछ अराजक तत्वों ने सुप्रीम कोर्ट के सामने ही दिन दहाड़े पटाखे चलाए। पिछले साल अदालत ने तो सरकार को समझाईश दे दी थी कि केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में व्यापक प्रचार करें और जनता को इस बारे में सलाह दे। दुर्भाग्य है कि अब आम लोगों पर ऐसी अपीलों का असर होता नहीं है, क्योंकि उनके राजनेता खुद आतिशबाजी चलाते दिखते हैं। यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है। हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिशबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परंपरा का हिस्सा है, यह तो कुछ दशक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिशबाजी पर नियंत्रित करने के लिए अगले साल दीपावली का इंतजार करने से बेहतर होगा कि अभी से ही आतिशबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकांड, बीमार लोग , बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियां सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लेागों तक पहुंचाने का कार्य षुरू किया जाए। यह जानना जरूरी है कि दीपावली असल में प्रकृति पूजा का पर्व है, यह समृद्धि के आगमन और पशु धन के सम्मान का प्रतीक है । इसका राश्ट्रवाद और धार्मिकता से भी कोई ताल्लुक नहीं है। यह गैरकानूनी व मानव-द्रोही कदम है। ऐसा नहीं है कि दीपावली चली गई और अब आतिशबाजी पर बहस के लिए एक साल को बात टल गई, सभ्य समाज और जागरूक सरकार को अभी से ही सारे साल पटाखें के दुश्प्रभाव के सच्चे-किस्से, उससे हैरान-परेशान जानवरों के वीडियो, उससे फैली गंदगी से कुरूप होई धरती के चित्र आदि व्यापक रूप से प्रसारित-प्रचारित करना चाहिए , विद्यसलयों और आरडब्लूए में इस पर सारे साल कार्यक्रम करना चाहिए। ताकि अपने परिवेश की हवा को स्वच्छ रखने का संकल्प महज रस्मअदायगी ना बन जाये ।
हालांकि यह सरकार व समाज देानेां को भलीभांति जानकारी थी कि रात 10 बजे के बाद पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में दिया था जो अब अब कानून की शक्ल ले चुका है। 1998 में दायर की गई एक जनहित याचिका और 2005 में लगाई गई सिविल अपील का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे। 18 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी और न्यायमूर्ति अशोक शर्मा ने बढ़ते शोर की रोकथाम के लिए कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों की आड़ में दूसरों को तकलीफ पहुंचाने, पर्यावरण को नुकसान करने की अनुमति नहीं देते हुए पुराने नियमों को और अधिक स्पष्ट किया, ताकि कानूनी कार्रवाई में कोई भ्रम न हो। अगर कोई ध्वनि प्रदूषण या सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ भादंवि की धारा 268, 290, 291 के तहत कार्रवाई होगी। इसमें छह माह का कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। पुलिस विभाग में हेड कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम अधिकारी को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई का अधिकार है। इसके साथ ही प्रशासन के मजिस्ट्रियल अधिकारी भी कार्रवाई कर सकते हैं। विडंबना है कि इस बार रात एक बजे तक जम कर पटाखें बजे, ध्वनि के डेसीमल को नापने की तो किसी को परवाह थी ही नहीं, इसकी भी चिंता नहीं थी कि ये धमाके व धुआं अस्पताल, रिहाईशी इलााकों या अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में बेरोकटोक किए जाते रहे । असल में आतिशबाजी को नियंत्रित करने की षुरूआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होना चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले एक भी पटाखे पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं है। सूत्रों के मुताबिक बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आए पटाखों में जहर की मात्रा असीम है व इस पर कहीं कोई रोक टोक नहीं है। कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। शांति क्षेत्र जैसे अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर व सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर 24 घंटे में कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन विडंबना है कि आतिशबाजी बेचने पर रोक लगाने के ओदश के कारण कुछ अराजक तत्वों ने सुप्रीम कोर्ट के सामने ही दिन दहाड़े पटाखे चलाए। पिछले साल अदालत ने तो सरकार को समझाईश दे दी थी कि केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में व्यापक प्रचार करें और जनता को इस बारे में सलाह दे। दुर्भाग्य है कि अब आम लोगों पर ऐसी अपीलों का असर होता नहीं है, क्योंकि उनके राजनेता खुद आतिशबाजी चलाते दिखते हैं। यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है। हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिशबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परंपरा का हिस्सा है, यह तो कुछ दशक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिशबाजी पर नियंत्रित करने के लिए अगले साल दीपावली का इंतजार करने से बेहतर होगा कि अभी से ही आतिशबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकांड, बीमार लोग , बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियां सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लेागों तक पहुंचाने का कार्य षुरू किया जाए। यह जानना जरूरी है कि दीपावली असल में प्रकृति पूजा का पर्व है, यह समृद्धि के आगमन और पशु धन के सम्मान का प्रतीक है । इसका राश्ट्रवाद और धार्मिकता से भी कोई ताल्लुक नहीं है। यह गैरकानूनी व मानव-द्रोही कदम है। ऐसा नहीं है कि दीपावली चली गई और अब आतिशबाजी पर बहस के लिए एक साल को बात टल गई, सभ्य समाज और जागरूक सरकार को अभी से ही सारे साल पटाखें के दुश्प्रभाव के सच्चे-किस्से, उससे हैरान-परेशान जानवरों के वीडियो, उससे फैली गंदगी से कुरूप होई धरती के चित्र आदि व्यापक रूप से प्रसारित-प्रचारित करना चाहिए , विद्यसलयों और आरडब्लूए में इस पर सारे साल कार्यक्रम करना चाहिए। ताकि अपने परिवेश की हवा को स्वच्छ रखने का संकल्प महज रस्मअदायगी ना बन जाये ।