कहां गुम हो गया तालाब विकास प्राधिकरण का सपना
पंकज चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन और भाजपा को विशाल बहुमत मिलने के अलग-अलग लोगों अपने-अपने सरोकार बहुत हैं, लेकिन जल-जंगल जमीन से प्रेम करने वालों को एक उम्मीद बंधी थी कि अब राज्य के उपेक्षित, पारंपरिक और समृद्ध तालाबों के दिन बहुरेंगें। कब्जों, गंदगी और जल-हीनता के शिकार हजारों तालाबों का स्वामी प्रदेश पेय-जल व सिंचाई संकट का सबसे अधिक प्रभावित रहा है। यदि षासन संभालने वाले दल ने अपने चुनाव के संकल्प पत्र पर ईमानदारी से काम किया तो यहां सशक्त ‘तालाब विकास प्राधिकरण’ का गठन होगा, जोकि राज्यभर के तालाबों को एक छतरी के नीचे ला कर उनको संपन्न व समृद्ध करेगा। योगी सरकार के पहले सौ दिनों के प्राथमिकता वाली सूची में प्राधिकरण गठन की बात भी थी। शपथ समारोह के कोई बीस दिन बाद ही मेंरे पास राज्य के सिंचाई महकमे के एक आला अफसर ने प्राधिकरण की संभावित रूपरेखा व यासेच के बारे में जानने को फोन भी किया। उन्हें ईमेल पर इसका खाका भेजा गया। उसके बाद कुछ कुछ फाईलें भी दौड़ीं जाहिर है कि ऐसे लोग भी सक्रिय होंगे जिन्होने तालाब सुखा कर कालेानी काट लीं या खेत बना लिए । सो, अब एक सशक्त प्राधिकरण की मांग एक सपना ही प्रतीत होती है।यह सच्चाई है कि साल-दर-साल बढ़ती आबादी का कंठ तर करने और उसका पेट भरने के लिए अन्न उगाने के लिए पानी की मांग बढ़ती जा रही है, वहीं जलवायु परिवर्तन के चलते बरसात कर हो रही है, साथ ही जल स्त्रोतों को ढंक कर उसकी जमीन पर मॉल-सड़क बनाने की प्रवृति में भी इजाफा हुआ हे। तीन दशक पहले सरकार ने पानी की कमी को पूरा करने के लिए भूजल पर जोर दिया, लेकिन वहां भी इतना उत्खनन हो गया कि पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में बंजर जमीन का खतरा पैदा हो गया। गंगा-यमुना जैसी नदियों के स्वामी उप्र को जगह’जगह बंध रहंे बांध और प्रदूशण के चलते सर्वाधिक जल-हानि झेलना पड़ा हे। संकट अकेले पानी की कमी का नहीं, असल विकराल समस्या, धरती के लगातार गरम होने और उसे षीतल रखने में कारगर तालाबों, जलाशयों के नश्ट होने का है। उप्र की राजधानी लख्नउ में अभी एक दशक पहले तक 12,653 ताालाब-पोखर-बावड़ी-कुएं हुआ करते थे।
सरकार ने अदालत में स्वीकार किया है कि इनमें से चार हजार को भूमाफिया ने पाट कर बहमंजिला इमारतें खड़ी कर दी हैं, जबकि 2023 पर अभी भी अवैध कब्जे हैं। ऐसे ही इलाहबाद में तेरह हजार, आजमगढ में 10,535, गोरखपुर में 3971 कानुपर में 377, सहारनपुर में 6858, मेरठ 1853 आगरा में 591, बनारस में 1611 जल निधियों को मटियामेट करने के आंकड़े सरकारी फाईलो ंमें दर्ज हैं। बंुदेलखंड तो अपने पारंपरिक तालबों के लिए मशहूर था। सबसे अधिक प्यास, पलायन व मुफलिसिी के लिए बदनाम हो गए, बुंदेलखंड के हर गांव में कई-कई तालाब होते थे। आज यहां का कोई भी षहर, कस्बा ऐसा नहीं है जो पानी की कमी से बेहाल ना हो और उसका विस्तार तालाबों के कब्रिस्तान पर ना हुआ हो। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है।
पिछले साल ही उत्तर प्रदेश के इटावा की नगर पालिका ने वहां के एक पुराने तालाब को सुंदर बनाने के नाम पर उसके संकरा कर रंगीन नीली टाईल्स लगाने की योजना पर काम षुरू किया है। हो सकता है कि उससे कुछ दिनों शहर में रौनक आ जाए, लेकिन ना तो उसमें पानी एकत्र होगा और ना ही वहां एकत्र पानी से जमीन की प्यास बुझेगी। यह भी तय है कि ऐसे तालाब में बाहर से पानी भरना होगा। ऐसा ही पूरे देश के सरोवरों के साथ लगातार हो रहा है - तालाब के जलग्रहण व निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसका आमाप समेट दिया जाता है, सौंदर्यीकरण के नाम पर पानी के बीच में कोई मंदिर किस्म की स्थाई आकृति बना दी गई व इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर दिया गया। बलिया का सुरहा ताल तो बहुत मशहूर है, लेकिन इसी जिले का एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैंकड़ों निजी तालाबों के कारण पड़ा था, सर यानि सरोवर से ‘सड़’ हुआ। कहते हैं कि कुछ दशक पहले तक वहां हर घर का एक तालाब था, लेकिन जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी व घरों में नल लगे, फिर गुसलखाने आए, नालियां आई, इन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया। फिर तालाबों से बदबू आई तो उन्हें ढंक कर नई कालेानियां या दुकानंे बनाने का बहाना तलाश लिया गया।
यह दुखद है कि आधुकिनता की आंधी में तालाब को सरकार भाशा में ‘‘जल संसाधन‘‘ माना नहींे जाता है , वहीं समाज और सरकार ने उसे जमीन का संसाधन मान लिया। देशभर के तालाब अलग-अलग महकमोे में बंटे हुए हैं। मछली विभाग, सिंचाई, वन, स्थानीय प्रशासन आदि। जब जिसे सड़क, कालोनी, मॉल, जिसके लिए भी जमीन की जरूरत हुई, तालाब को पुरा व समतल बना लिया। आज षहरों में आ रही बाढ़ हो या फिर पानी का संकट सभी के पीछे तालाबों की बेपरवाही ही मूल कारण है। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है।
यह देश के किसी राज्य में पहली बार होना था जब किसी सरकार ने लगभग 74 साल पुरानी एक ऐसी रपट को गंभीरता से अमल करने की सोचेगी जो कि सन 1943 के भयंकर बंगाल दुर्भिक्ष में तीन लाख से ज्यादा मौत होने के बाद ब्रितानी सरकार द्वारा गठित एक आयोग की सिफारिशों में थी। सन 1944 में आई अकाल जांच आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत जैसे देश में नहरों से सिंचाई के बनिस्पत तालाब खोदने व उनके रखरखाव की ज्यादा जरूरत है। सन 1943 में ‘ग्रो मोर कैंपेन’ चलाया गया था जोकि बाद में देश की पहली पंचवर्शीय योजना का हिस्सा बना, उसमें भी लघु सिंचाई परियोजनाओं यानि तालाबों की बात कही गई थी। उसके बाद भी कई-कई योजनाएं बनीं, मप्र जैसे राज्य में ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’’ जैसे अभियान चले, लेकिन जब आंकड़ों पर गौर करें तो दिल्ली हो या बंगलूरू या फिफर छतरपुर या लखनउ, सभी जगह विकास के लिए रोपी गई कालेानियां, सड़कांे,, कारखानों, फ्लाई ओवरों को तालाब को समाप्त कर ही बनाया गया। तालाब विकास प्राधिकरण इसी लिए आवश्यक है कि वह पहले राज्य के सभी तालाब, पोखरों का सर्वेक्षण कर उनके आंकड़े तो ईमानदारी से एकत्र करे, जिसमें बच गए जल संसाधन, कब्जा किए गए इलाकों , उपलब्ध तालाबों की मरम्मत, उससे जुड़े अदालती पचड़ों के निबटारे जैसे मसलों पर अधिकार संपन्न संस्था के रूप में निर्णायक हो।
पहले बताया गया था कि राज्य सरकार की प्राथमिकता सिंचाई संसाधन विकसित करने की है और इसके तहत तालाब प्राधिकरण का गठन महत्वपूर्ण कदम होगा। परंतु अब कहीं सुगबुगाहट है जिसमें मौजूदा तालबों के सौंदर्यीकरण या क्षमता विकसित करने के लिए किसी संस्था को बनाने की बात है। लेकिन इसमें तालाब अलग-अलग महकमों के मालिकाना हक और उद्देश्यों में अटके रहेंगे। तालाबों पर कब्जे के मुकदमें वैसे ही दीवानी अदालतों में दशकांें तक चलते रहेंगें।
काश उप्र सरकार अपने मूल इरादे पर गंभीर होती तो देश के अन्य राज्यों में भी जल संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओ के लिए यह एक नजीर होगा। यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर्र इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है । एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए । इस पूर कार्य का संचालन तालाब प्राधिकरण के अंतर्गत हो। जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘‘अपनी जड़ों को लौटने’’ की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी ।