My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

For better learning process children need lots of non-text books

 अकेले पाठ्य पुस्तकों से नहीं सीखता बच्चा 

                                                                                                                                 पंकज चतुर्वेदी


चार साल पहले हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश  की राजधानी में सरकारी स्कूल में पढने वाले 75 फीसदी बच्चे अपनी पाठ्य पुस्तक को ठीक से पढ नहीं पाते थें। पढ नहीं पाते हैं तो समझ नहीं पाते और समझ नहीं पाते तो उस पर अमल नहीं कर पाते। षायद यही कारण है कि कक्षा 10 के आते-आते इनमें से 40 प्रतिषत शिक्षा छोड़ देते हैं। उनके लिए स्कूल, पुस्तक, परीक्षा, डिगरी महज एक उबाऊ या रटने वाली गैर उत्पादक प्रक्रिया होती है व उसमें वे अपनी रोटी या भविश्य नहीं देखते। मामला यही नहीं रूकता, यही अल्प शिक्षित या अल्प शिक्षित  लोग जब सरकार की योजनाओ को ठीक से पढ या समझ नहीं पाते हैं तो योजनाएं भ्रष्टाचार  या कागजी आंकड़ों की षिकार हो जाती हैं। 

जान लें कि सारा दोष  बच्चे या शिक्षक  या उनके सामाजिक-आर्थिक परिवेश  का नहीं है, बहुत कुछ तो हमारी पुस्तक में छपे शब्द, प्रस्तुति, चित्र और तय किए मानक भी जिम्मेदार हैं। आज नई शिक्षा नीति के परिेपेक्ष्य में भी यह जरूरी हो गया है कि अपने पढ़े को व्याहवारिकता में बदल पाने के लक्ष्य को पाने के लिए कुछ ऐसा पढ़ना जरूरी है जिसका कोई इम्तेहान ना हो व बच्चा खुद अपने तरीके से उससे सीखे व समझे। 

वास्तव में शिक्षा  प्रणाली, जिसमें पाठ्य पुस्तक भी शामिल  है, का मौजूदा स्वरूप आनंददायक शिक्षा  के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । एमए पास बच्चे जब बैक में पैसा जमा करने की पर्ची नहीं भर पाते या बारहवीं पास बच्चा होल्डर में बल्ब लगाना या साईकिल की चैन चढ़ाने में असमर्थ रहता है तो पता चलता है कि हम जो कुछ पढ़ा रहे हैं वह कितना चलताऊ है। कुल मिला कर स्कूल में पढे हुए के मूल्यांकन के तौर पर होने वाली परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता  की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप  ले लिया है । लिखना, पढना, बोलना, सुनना - ये चारों क्रियाएं वैसे तो अलग-अलग हैं लेकिन वे एकदूसरे से जुड़ी हैं। एक दूसरे पर निर्भर हैं, एकदूसरे को उभारती हैं। एक अकेले शब्द का अर्थ अलग होता है, कुछ शब्द जुड़ कर जब एक वाक्य बनते हैं तो उनका अर्थ व्यापक हो जाता है। सरल भाषा  वही है जो उपरोक्त चारों क्रियाओं में सहज हो।  


अब बच्चा घर में अपनी देषज भाशा- बुंदेली, मालवी, ब्रज या राजस्थानी इस्तेमाल कर रहा है और स्कूल में उसे खड़ी बोली में पढाया जा रहा है। उसके बालने, समझने , सीखने व पढने की भाषा में जैसे ही भेद होता है , वह गड़बड़ा जाता है व पुस्तकों में अपनी ऊब को खड़ा पाता है। उदाहरण के तौर पर बच्चों को ई से ईख व ए से एैनक पढ़ाया जा रहा है जबकि वे ईख शब्द का इस्तेमाल करते नहीं, वे तो गन्ना कहते हंे या ऐनक नहीं चश्मा । अब बेहद गरीब परिवेश  के ग्रामीण बच्चे, जिन्होंनंे कभी अनार देखा नहीं, उन्हें रटवाया जाता है कि  अ अनार का। यह तो प्रारंभिक पुस्तक के स्वर वाले हिस्सों का हाल है, जब व्यजंन में जाएंगे तो ठठेरे, क्षत्रिय जैसे अनगिनत शब्द मिलेंगे। 



स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है।  भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्रभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।  अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत‘ उच्चारण करते हैं।  बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।


 

बच्चा ठीक से पढ सके, उसका आनंद उठाए और से समझ सके, इसके लिए सबसे पहले तो नीरस पुस्तकों को बदलना होगा, 12  या 16 पेज की रंगबिरंगी छोटी कहानी वाली, जिसमें साठ फीसदी चित्र हों, ऐसी पुसतकें बच्चों के बीच डाली जाएं, इस उम्मीद के सथ कि इसकी कोई परीक्षा नहीं होगी। उसके बाद पाठ्य पुस्तक हो, जिसमें स्थानीय परिवेष, पाठक बच्चों की पृष्ठभूमि  आदि को ध्यान रख कर सकारात्मक सामग्री हो। चित्र की अपनी भाशा होती है और रंग का अपना  आकर्षण , मनोरंजक कहानियां व चित्रों की मदद से बच्चे बहुत से षब्द चिन्हने लगते हैं और वे उनक इस्तेमाल सहजता से अपनी पाठय पुस्तक में भी करने लगते हैं। इससे सीखने व समझने की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। भाषा की लिपि को पहचानना और अर्थ ग्रहण करना , फिर उन शब्दों को दूसरी जगह चीन्हना, इस प्रणाली में बच्चे तेजी से पढ़ने की दक्षता हांसिल करते है।  


असल में पढ़ना, लिखना या शब्द  पहचानना बच्चे की समझ के विकास-चक्र का महत्वपूर्ण घुमाव है और उसे नीरस की पाठ्य पुस्तक के बदौलत छोड़ना महज एक शिक्षा  की औपचारिकता पूरा करना है। अब समय की मांग है कि रटन्तू व्यवस्था को अलविदा कहा जाए। जैसे ही बच्चा सीखने, पहचानने और उसे डीकोड करने की पूरी प्रक्रिया को एक साथ अपना कर उसमें चुनौती व आनंद ढूंढने लगता है, शिक्षा  उसके लिए एक रोमांच व कौतुहल बन जाती है।  हो सकता है कि यह मौजूदा पाठ्यक्रम को समाप्त करने की अवधि में एमएसएल यानि मिनिमम लेबल आफ लर्निग या सीखने का न्यूनतम स्तर पाने की गति से कुछ धीमी प्रक्रिया हो, लेकिन यदि गाड़ी एक बार गति पकड़ लेती है तो फिर फर्राटे    से दौड़ती है। बुजुर्ग निरक्षरों को पढ़ाने की पद्धति ‘आईपीसीएल’(इम्प्रूव्ड पेस आफ कन्टेंट एंड लर्निंग )इसकी सफलता की बानगी है। 



विभिन्न ध्वनियों के बीच भेद व उसे लिखने में अंतर सीखने के लिए सुनने की बेहतर दक्षता विकसित करना अनिवार्य है और इस राह की बाधाओं को दूर करने में कहानी कहना या गैरपाठ्य पुस्तकों से चित्र, या कठपुतली या अन्य माध्यम के साथ कहानी कहना बेहद कारगर हथियार है। स या ष का भेद, तीन तरह की र की मात्रा का अनुप्रयोग व लेखन जैसी जटिलताएं सीखने में इस तरह की पुस्तकें व कहानियां रामबाण रही हैं।  काष प्राथमिक स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का  वजन कम कर , रटने की पारंपरिक प्रक्रिया से परे  चित्र व षब्द का सम्मिलन कर अपनी कहानी गढने व समझने जैसी प्रक्रियाओं को अपनाया जाए तो पढने-समझने और सीखने की प्रक्रिया ना केवल आसान हो जाएगी, वरना बच्चों के लिए भी खेल -खेल में सीखने जैसी होगी। जान लें कि प्राथमिक कक्षाओं में सीखने की पहली कड़ी है सुनने व सहेजने की दक्षता का विकास। आमतौर पर इसे एकालाप मान लिया जाता है यानि षिक्षक कहेगा व बच्चा सुनेगा। जब सुनने की क्षमता के विकास के लिए संवाद  की पद्धति अपनाई जाती है तो बच्चे में खुद को अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास होता है और यही पढने का प्रारंभ है। 




गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

cycle-can-change-the-scenario-during-corona-pandemic

कोरोना काल के दौर में साइकिल बदल सकती है तस्वीर




कोरोना के खतरे के बीच जैसे ही जिंदगी सामान्य होने के ताले खुले, राजधानी दिल्ली की सुबह सड़कों पर हजारों साइकिलों ने यहां के लोगों की परिवहन-अभिरुचि में बदलाव का इशारा कर दिया। कुछ लोग अपने कार्यस्थल तक जाने के लिए साइकिल का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो बच्चे व युवा इस इरादे से साइकिल की आदत डाल रहे हैं कि स्कूल-कॉलेज खुलने पर सार्वजनिक परिवहन में संभावित संक्रमण से बचने का उपाय होगा कि वे अपने खर्च रहित वाहन से ही जाएं। कोरोना संकट के दौरान भारत में 45 लाख साइकिलें बिकी हैं। यह विचित्र है कि एक ओर, दिल्ली-एनसीआर में साइकिल की कमी हो रही है, दूसरी ओर, वर्ष 1951 में शुरू हुई, सालाना चालीस लाख साइकिलों का उत्पादन करने वाली और हजारों लोगों को रोजगार देने वाली एटलस साइकिल की कंपनी में ताला लग गया। साइकिल के प्रति आम लोगों का लगाव बढ़ना शुभ है, पर इस पर भी विचार करना होगा कि हमारी सड़कें और यातायात व्यवस्था साइकिल का इस्तेमाल करने वालों के अनुरूप हैं भी कि नहीं।


सालाना 2.2 करोड़ उत्पादन के साथ भारत साइकिल उत्पादन में दुनिया में दूसरे स्थान पर आता है, पर नीति आयोग की विगत मार्च की रिपोर्ट बताती है कि आज भी देश में करीब बीस करोड़ लोग ऐसे हैं, जो 10 किलोमीटर दूर अपने कार्य स्थल तक पैदल जाते हैं, क्योंकि उनकी हैसियत साइकिल खरीदने की भी नहीं है। दिल्ली-एनसीआर में इन दिनों सुबह जो हजारों साइकिल सवार दिख रहे हैं, उनमें से अधिकांश कम से कम एक कार के मालिक तो हैं ही। भारत में प्रति एक हजार पर मात्र 90 साइकिलें हैं, जबकि यह आंकड़ा चीन में 300, जापान में 700 और नीदरलैंड में 1,100 है। जाहिर है कि देश में साइकिलों की मांग में वृद्धि की संभावना है। साइकिल उत्पादक एसोसिएशन का कहना है कि वर्ष 2025 तक देश में सालाना पांच करोड़ साइकिल का उत्पादन अपने स्थानीय बाजार के लिए करना होगा। वर्ष 2018-19 में भारत ने सात लाख साइकिलें आयात कीं और अधिकांश चीन से आईं।

साइकिल की सवारी न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से, बल्कि पर्यावरण और देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती के लिए भी महत्वपूर्ण है। पिछले साल टेरी की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि छोटी दूरी के लिए साइकिल का इस्तेमाल बढ़ाने से अर्थव्यवस्था को 1.8 खरब का फायदा होगा। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश के 45 फीसदी घरों में यानी 11.1 करोड़ लोगों के पास साइकिल थी। वर्ष 2001 से 2011 के बीच देश में कारों की संख्या में 2.4 गुना वृद्धि दर्ज की गई, दोपहिया वाहन 2.3 प्रतिशत बढ़े, पर इस दौरान साइकिल खरीदने वालों की संख्या में मात्र 1.3 फीसदी वृद्धि हुई। भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति साइकिल के लिए माकूल है। यह किफायती व सुरक्षित है तथा इसका रख-रखाव भी सस्ता है। इसके बावजूद इसकी मांग कम होने का असल कारण ईंधन संचालित वाहनों को बेचने में वित्तीय संस्थाओं के कर्ज बांटने की रणनीति है। ऐसे हजारों लोग हैं, जिन्होंने बगैर जरूरत दिखावे के लिए बाइक-स्कूटर ले ली है। जबकि उसके कर्ज की किस्त, हर साल बीमा राशि, मरम्मत और महंगा ईंधन उनकी जेब में छेद करता है। 

हमारे यहां साइकिल के लिए अलग से कोई परिवहन कानून है ही नहीं। बाजार, कार्यालय या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर इसकी पार्किंग की सुरक्षित व्यवस्था नहीं है। कहने को दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, अहमदाबाद सहित कुछ शहरों में साइकिल के लिए अलग से रास्ते बने हैं, पर अधिकांश जगह उन पर कब्जे हैं या वे साइकिल चलाने लायक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार ने लखनऊ, गाजियाबाद, नोएडा में कई किलोमीटर लंबे साइकिल पथ बनवाए थे। पर उसके बड़े हिस्से पर साइकिलें कभी चली ही नहीं। साइकिल चलाने से न केवल कच्चे तेल के आयात का बिल घटाकर विदेशी मुद्रा बचाई जा सकती है, बल्कि इससे वायु प्रदूषण में भी भारी कमी आ सकती है। साइकिल का चलन बढ़ने से लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है। अकेले लुधियाना में साइकिल से जुड़े 4,000 हजार लघु व मध्यम कारखाने हैं, जहां 10 लाख लोगों को रोजगार मिला है। कोरोना संकट और खतरनाक होते वायु प्रदूषण के बीच देश में साइकिल को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।


Download Amar Ujala App for Breaking News in Hindi & Live Updates. https://www.amarujala.com/channels/downloads?tm_source=text_share

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

Why Farmers Burn Straw in farm ?

 पराली बदल सकती है खेत की किस्मत

पंकज चतुर्वेदी 



दिल्ली की आवोहवा जैसे ही जहरीली हुई पंजाब-हरियाणा के खेतों में किसान अपने अवषेश या पराली जलाने पर ठीकरा फोड़ा जाने लगा, हाांकि यह वैज्ञानिक तथ्य है कि राजधानी के स्मॉग में पराली दहन का योगदान महज दस फीसदी ह, लेकिन यह भी बात जरूरी है कि खेतों में जलने वाला अवशेष असल में किसान की तकदीर बदल सकता है। हालांकि खेतों में अवषेश जलाना गैरकानूनी घोशित है फिर भी धान उगाने वाला ज्यादातर किसान पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाए खेत में ही जला देते हैं या फिर ऐसे बर्बाद होने देते हैं। यह ना केवल जमीन की उर्वरा षक्ति को प्रभावित करता है , बल्कि यदि यदि थोड़ी समझदारी दिखाई जाए तो किसान फसल अवशेषों से खाद बनाकर अपने खेत की उर्वरता बढ़ा सकते हैं। यह जानना जरूरी है कि पराली जलाने की समस्या लगभग पूरे भारत में होती है। 


चूंकि जब तक राजधानी दिल्ली पर कोई संकट ना आए तब तक ना तो प्रषासन चेतता है और ना ही समाज। सो जब-जब दिल्ली में हवा जहरीली होती है, पराली को कोसा जाने लगता है। कभी इस बात पर गंभीरता से विचार किया नहीं गया कि किसान की भी क्या मजबूरी है कि जो धुआं उसके पूरे घर के स्वास्थ्य का दुष्मन है, वह आखिर क्यों उसे उपजाता है ? 

देष में हर साल कोई 31 करोड़ टन फसल अवषेश को फूंका जाता है जिससे हवा में जहरीले तत्वों की मात्रा 33 से 290 गुणा तक बढ़ जाती है। एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लाख टन पराली या अवषेश जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाय आक्साईड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनो आक्साईड, 1460 किलो कार्बन डाय आक्साईड और 199 किलो राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवषेश जलते है तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत व बड़े किसान मजदूरों की उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल, खासतौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मषीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का अधिकांष हिस्सा  खेत में ही रह जाता है। खेत की जैवविविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है, खासतौर पर जब पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है जो कृशि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। फसल से बचे अंष को इस्तेमाल मिट्टी जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने के लिए नही किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली, की पत्तियां पशुओं के चारे के रूप् में उपयोग की जाती हैं तो कपास, सनई, अरहर आदि के तने गन्ने की सूखी पत्तियां, धान का पुआल आदि को जला दिया जाता है। 



कानून की बंदिष और सरकार द्वारा प्रोत्साहन राषि के बावजूद पराली के निबटान में बड़े खर्च और दोनो फसलों के बीच बहुत कम समय के चलते बहुत से किसान अभी भी नहीं मान रहे। किसान चाहें तो गन्ने की पत्तियों, गेहूं के डंठलों जैसे अवषेशों से कंपोस्ट तैयार कर अपनी खाद के खर्चें व दुश्प्रभाव से बच सकते हैं। इसी तरह जहां मवेषियों के लिए चारे की कमी नहीं है , वहां धान की पुआल को खेत में ढेर बनाकर खुला छोडऩे के बजाय गड्ढ़ों में कम्पोस्ट बनाकर उपयोग कर सकते हैं। आलू और मूंगफली जैसी फसलों को खुदाई कर बचे अवशेषों को भूमि में जोत कर मिला देना चाहिए। मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़कर खेत में मिला देना चाहिए। इसी तरह केले की फसल के बचे अवशेषों से यदि कम्पोस्ट तैयार कर ली जाए तो उससे 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन 3.43 फीसदी फास्फोरस तथा 0.45 फीसदी पोटाश मिलता है।


वैसे आधुनिक मषीन रोटावेटर भी फसल अवषेश को सोना में बदलने में बेहद कारगर है। इस मषीन से जुताई करने पर फसल अवषेश मषीन से बारीक-बारीक कतरे हो कर मिट्टी में ही मिल जाते हैं। यह बात किसानों तक पहुंचाना जरूरी है कि जिन इलाकों में जमीन की नमी कम हो रही है और भूजल गहराई में जा रहा है, वहां रासायनिक खाद के बनिस्पत कंपोस्ट ज्यादा कारगर है और पराली जैसे अवषेश बगैर किसी व्यय के आसानी से कंपोस्ट में बदले जा सकते हैं। लेकिन इस मषीन के साथ दिक्कत है कि यह अवषेश की ऊपरी हिस्सा तो काट देता है लेकिन उसकी जड़ या ठुंठ हाथ से ही उखाड़ना पड़ता है। 

सनद रहे यदि मिट्टी में नमी कम हो जाए तो जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है। यदि पराली को ऐसे ही खेत में कुछ दिनों पड़े रहने दिया जाए तो इससे मिट्टी की नमी बढ़ती है और कम सिंचाई से काम चल जाता है। फसल अवशेष को जलाने से खेत की छह इंच परत, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभदायक सूक्ष्मजीव जैसे राइजोबियम, एजेक्टोबैक्टर, नील हरित काई, मित्र कीट के अंडे आदि होते हैं , आग में भस्म हो जाते हैं। साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति भी जर्जर हो जाती है। 


फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन जैसे फसल कटाई के बाद अवशेषों को एकत्रित कर कम्पोस्ट गड्ढे या वर्मी कम्पोस्ट टांके में डालकर कम्पोस्ट बनाया जा सकता है। खेत में ही पड़े रहने देने के बाद जीरो सीड कर फर्टिलाइजर ड्रिल से बोनी कर अवशेष को सड़ने हेतु छोड़ा जा सकता है। इस प्रकार खेत में अवशेष छोडऩे से नमी संरक्षण खरपतवार नियंत्रण एवं बीज के सही अंकुरण के लिए मलचिंग का कार्य करता है।

उधर किसान का पक्ष है कि पराली को मषीन से निबटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं होती नहीं। इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवषेश का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की रकवा कम नहीं होता, दिल्ली को पराली के संकट से निजात मिलेगी नहीं। 



कहने को राज्य सरकारें मषीनें खरीदने पर छूट दे रही हैं परंतु किसानों का एक बड़ा वर्ग सरकार की सबसिडी योजना से भी नाखुष हैं। उनका कहना है कि पराली को नश्ट करने की मषीन बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मषीन डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। 


A Planned lock down can fresh the air of Delhi-NCR

 केवल लॉकडाउन से ही सुधरेगी दिल्ली की हवा 

पंकज चतुर्वेदी



राजधानी दिल्ली में सर्दी के आगमन को एक सुकनू वाले मौसम के रूप में नहीं, बल्कि बीमारी की ऋतु के रूप में याद किया जाता है। ऐसा नहीं कि दिल्ली व उसक आसपास के शहरों की आवोहवा सारे साल बहुत शुद्ध  रहती है , बस इस मौसम में नमी और भारी कण मिल कर स्मॉग के रूपमें  सूरज के सामने खड़ै होते है। तो सबको दिखने लगता है। यह बात सही है कि इस साल जाते मानसून ने दिल्ली पर फुहार बरसाई नहीं, यह भी बात सही है कि  हवा की गति शुन्य होने से बदलते मौसम में दूषित  कण वायुमंडल के निचले हिस्से में ही रह जाते है व जानलेवा बनते हैं। लेकिन यह भी स्वीकारना होगा कि बीते कई सालों से अक्तूबर षुरू होते ही दिल्ली महानगर व उसक करीबी इलाकों में जब स्मॉग लोगों की जिंदगी के लिए चुनौती बन जाता है तब उस पर चर्चा, रोक के उपाय व सियासत होती है। हर बार कुछ नए प्रयोग होते हैं, हर साल ऊंची अदालतें चेतावनी देती हैं डांटती हैं , राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरेाप लगाते हैं और तब तक ठंड  रूखसत हो जाती है।  अभी कोविड़ की त्रासदी के पूर्ण ताला-बंदी के दिन याद करें, किस तरह प्रकृति अपने नैसर्गिक रूप में लौट आई थी, हवा भी स्वच्छ थी और नदियों मे  जल की कल-कल मधुर थी। बारिकी से देखें तो इस काल ने इंसान को बता दिया कि अत्यधिक तकनीक, मषीन के प्रयोग, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से जो पर्यावरणीय संकट खड़ होता है उसका निदान कोई अनय तकनीकी या मषीन नहीं बल्कि खुद प्रकृति ही है। इस साल तो चिकित्सा तंत्र चेतावनी दे चुका है कि दिसंबर तक हर दिन वातावरण जहरीला होता जाएगा, यदि बहुत ही जरूरी हो तो ही घर से निकलें। 



इस साल भी दिल्ली की हवा में सांस लेने का मतलब है कि अपने फेंफडों में जहर भरना, खासकर कोरोना का संकट जब अभी भी बरकरार है, ऐसे हालात सामुदायिक-संक्रमण विस्तार को बुलावा दे सकते हैं। जैसे कि हर बार वायु को शुद्ध  करने के नाम पर कोई तमाशा  होता है इस बार का तमाशा  है -लाल बत्ती पर  गाड़ी बंद करना । ऐसा नहीं कि यह अच्छी आदत नहीं है लेकिन क्या सुरसामुख की तरह आम लोगों के स्वास्थ्य को लील रहे वायु प्रदुषण  से जूझने में परिणामदायी है भी कि नहीं ? बीते सालों में वाहनों के सम-विषम  के कोई दूरगाामी, स्थाई या आशा स्वरूप परिणाम आए नहीं ठीक इसी तरह दिल्ली में जाम के असली कारणों पर  गौर किए बगैर इस तरह के पश्चिमी देशों  की नकल वाले प्रयोग महज कागजी खानापूर्ति ही हैं। 

कोई चार साल पहले राष्ट्रीय  हरित प्राधिकरण यानि एनजीटी ने दिल्ली सरकार को आदेश  दिया था कि राजधानी की सड़कों पर जाम ना लगे, यह बात सुनिश्चित  की जाए। एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा है कि यातायात धीमा होने या फिर लाल बत्ती पर अटकने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन जाया होता है, जिससे दिल्ली की हवा दूषित  हो रही है।

दिल्ली की रिंग रोड़ पर भीकाजीकामा प्लेस से मेडिकल और उससे आगे साउथ एक्स तक सुबह सात बजे से ही जाम लगने लगता है। यहां वाहनों की गति औसतन पांच से आठ किलोमीटर रहती है। कहने को यहां पूरे में फ्लाई ओवर हैं, कोई लाल बत्ती नहीं हैं लेकिन जाम हर दिन बढ़ता रहता है। सनद रहे यहीं पर एम्स, सफदरजंग अस्पताल और ट्रॉमा सेंटर जैसे तीन ऐसे बड़े अस्पताल हैं जहां हर दिन हजारों लोग इलाज को आते हैं और उनमें से कई एक के षरीर पर अब एंटीबायोटिक्स ने असर करना बंद कर दिया है, कारण है कि इस पूरे परिवेष में वाहनों के धुएं ने सांस लेने लायक साफ हवा का कतरा भी नहीं छोड़ा है। जाम का असल कारण है -संकरा मोड़, वहां से तीन रास्ते निकला और सफदरजंग के सामने बस स्टैंड पर मनमाने तरीके से बसें और तिपहिया लगे होना। राजधानी की अधिकांश  सार्वजनिक परिवहन बसें अपने निर्धारित स्टाप  पर खड़ी होती ही नहीं हैं। सवारी बस स्टाप से कम से कम पांच मीटर आगे सड़क पर होती हैं व बसें उससे भी आगे। जाहिर है कि हर बस स्टाप के करीब सड़कों का अधिकांष हिस्स बसों की धींगा-मुष्ती में घिरा होता है व उससे सड़क पर अन्य वाहन ठिठके हुए जहरीला धुआं छोड़ते हैं।

दिल्ली के सबसे अधिक जहरीली हवा वाले इलाकों में आनंद विहार एक है। यहां रेलवे स्टेशन  है, बस अन्तरराजकीय बस अड्डा है और ठीक सामने उप्र सरकार का बस डिपो भी है। यहां इस साल के प्रारंभिक महीनों में ही 6250 से अधिक वाहनों के चालान किए गए। यहां यातायात विभाग के 15 जवान स्थाई तौर पर लगे हैं लेकिन दिलशाद गार्डन से एनएच-9 को जोड़ने वाली इस सड़क पर दो फ्लाई ओवर होने के बावजूद बस स्टेंड के सामने वाले 500 मीटर पर चौबीसों घंटे जाम रहता है। सनद रहे यहां एक तरफ की सड़क चार लेन की है यानी आठ लेन रोड़। लेकिन बसें व अन्य वाहन मनमाने तरीके से खड़े रहते हैं । यदि राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला के आंकड़ों पर भरोसा करंे तो दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कणों के घुलने में सबसे बड़ा योगदान ,17 प्रतिशत वाहनों का उत्सर्जन है। 

दिल्ली में ऐसे ही लगभग 300 स्थान हैं जहां जाम एक स्थाई समस्या है। जान कर आष्चर्य होगा कि इनमें से कई स्थान वे मेट्रो स्टेषन है। जिन्हें जाम खतम करने के लिए बनाया गया था। मेट्रो स्टेषन यानी बैटरी व साईकिल रिक्षा, आटो के बेतरतीब पार्कि्रग, गलत दिषा में चालन, ओवर लोडिंग और साथ में अपने लोगों को लेने व छोड़ने वालों का आधी सड़क पर कब्जा।  दिल्ली में जितने फ्लाई ओवर या अंडर पास बनते हैं, मेट्रो का जितना विस्तार होता है, जाम का झाम उतना ही बढ़ता जाता है। 

यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दषक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे । एक अंतरराश्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। 

जब दिल्ली की हवा ज्यादा जहरीली होती है तो एहतिहात के तौर पर वाहनों का सम-विषम  लागू कर सरकार जताने लगती है कि वह बहुत कुछ कर रही है। याद दिलाना चाहेंगे कि पिछले साल एम्स के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने कह दिया था दूषित हवा से सेहत पर पड़ रहे कुप्रभाव का सम विषम स्थायी समाधान नहीं है। क्योंकि ये उपाय उस समय अपनाये जाते हैं जब हालात पहले से ही आपात स्थिति में पहुंच गये हैं। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है कि जिन देशों में ऑड ईवन लागू है वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट काफ़ी मजबूत और फ्री है, लेकिन यहां नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपने ऑड ईवन के दौरान केवल कार को चुना गया जबकि दूसरे वाहन ज्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं।

एक साल पहले सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने कोर्ट में कहा था कि हमारे अध्ययन के मुताबिक ऑड ईवन से कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ। प्रदूषण सिर्फ 4प्रतिषत कम हुआ है । चूंकि दिल्ली में कार 3 फीसदी, ट्रक 8 फीसदी, दो पहिया 7 फीसदी और तीन पहिया 4 फीसदी प्रदूषण फैलाते हैं और पाबंदी केवल कार पर होती है।

यदि आनन-फानन में लागू की गई संपूर्ण तालाबंदी से सीख ले कर व्यवस्थित रूप से साल के जटिल दिनों में एक-एक सप्ताह की पूर्ण बंदी पर अमल हो तो प्रदुषण  से जूझने की अरबों  रूपए की तकनीकी पर व्यय और बीमार लोगों के इलाज पर खर्च से बचा जा सकता है। हालांकि अभी स्कूल-कालेज तो खुले नहीं हैं लेकिन यह अनुभवों से सीख चुके  हैं कि बेहतर तकनीकी व्यवस्था कर ली जाए तो कुछ दिनों के लिए शिक्षण संस्थान बंद कर घर से पढ़ाई घाटे का सौदा नहीं है। लॉक डाउन ने हजारों कार्यालय को घर से दफ्तर के काम करने के सलीके भी सिखा दिए हैं। कोरोना ने बता दिया कि हवा-पानी को शुद्ध करने के नाम पर बेवहज व्यय मत करो, बस जब लगे कि प्रकृति इंसान के बोझ से हांफ रही है तो दो- एक हफ्ते का लॉक डाउन कड़ाई से लागू कर दो , प्रकृति खिल खिला देगी । इन दिनों अपराध कम होते हैं, सडक दुर्घटना कम हो जाती हैं ,जहरीली हवा या दूषित खाना खाने से बीमार होने वालों की संख्या कम हो जाती है। 


राजधानी के वायु प्रदूषण   से जूझने के स्थाई कदम
1.यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंगे जो दिल्ली षहर के लिए हों। अब करीबी षहरों की बात कौन करे जब दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड  वाहन, मेट्रो स्टेषनों तक लोगों को ढो ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिएं ,पुराने स्कूटरों को जुगाड के जरिये रिक्षे के तौर पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवाा ही होगा। 
2. यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन  दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं आज भी दिल्ली में जितने विकास कार्यों कारण जाम , ध्ूाल उड़ रही है वह यहां की सेहत ही खबरा कर रही है, भले ही इसे भविश्य के लिए कहा जा रहा हो।
3. हवा को जहर बनाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। पेट्रो पदार्थों को रिफायनरी में षोधित करते समय सबसे अंतिम उत्पाद होता है - पैटकॉन। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होने के चलते दिल्ली व करीबी इलाकें के अधिकांष बड़े कारखाने भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।
4.यदि वास्तव में दिल्ली की हवा को साफ रखना है तो तो इसकी कार्य योजना का आधार सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौडाई नहीं , बल्कि महानगर की जनसंख्या कम करने के कड़े कदम होना चाहिए। दिल्ली में सरकारी स्तर के कई सौ ऐसे आफिस है जिनका संसद या मंत्रालय के करीब होना कोई जरूरी नहीं। इन्हें एक साल के भीतर दिल्ली से दूर ले जाने के कड़वे फैसले के लिए कोई भी तंत्र तैयार नहीं दिखता। 
5. सरकारी कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेष देने, एक ही कालेानी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता है। 




मंगलवार, 20 अक्टूबर 2020

brahmaputra-and-its-tributaries-river-erosion-in-assam-is-causing-many-social-systemic-and-economic-crisis

 राजनीति: लहरों का कहर


असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप और भूमि क्षरण से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध और तटबंधों की सफाई तथा नए बांधों का निर्माण जरूरी है। मगर सियासती खींचतान के चलते ब्रह्मपुत्र की लहरों का कहर जैसे वहां की नियति बन चुका है।






असम में बाढ़ से हर साल लाखों लोग प्रभावित होते हैं, लेकिन राजनीतिक खींचतान मेंं अब तक इस समस्या का कोई निदान नहीं निकल सका है।सदियों पहले नदियों के साथ बह कर आई मिट्टी से निर्मित असम राज्य अब इन्हीं व्यापक जल-शृंखलाओं के जाल में फंस कर बाढ़ और भूमि कटाव झेलने को अभिशप्त है। ब्रह्मपुत्र, बराक और इनकी कोई पचास सहायक नदियों का तेज बहाव अपने किनारों की बस्तियों-खेतों को जिस तरह उजाड़ रहा है, उससे राज्य में कई तरह के सामाजिक, व्यवस्थागत और आर्थिक संकट पैदा हो रहे हैं।

असम में बाढ़ और कटाव आपस में जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के आंकड़ों के मुताबिक असम राज्य के कुल क्षेत्रफल 78.523 लाख हेक्टर में से 31.05 लाख हेक्टर यानी कोई 39.58 फीसद हर साल नदियों के जल-प्लावन में अपना सब कुछ लुटा देता है। इसकी तुलना में अगर पूरे देश के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का आंकड़ा देखें तो यह महज 9.40 प्रतिशत है। असम में हर साल बाढ़ का दायरा बढ़ रहा है।

इसमें सबसे खतरनाक है नदियों का अपने ही तटों को खा जाना। पिछले छह दशक में राज्य की 4.27 लाख हेक्टर जमीन कट कर पानी में बह चुकी है, जो कि राज्य के कुल क्षेत्रफल का 7.40 प्रतिशत है। हर साल औसतन आठ हजार हेक्टर जमीन नदियों के तेज बहाव में कट रही है। 1912-28 के दौरान किए गए ब्रह्मपुत्र नदी के अध्ययन के अनुसार यह कोई 3870 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से गुजरती थी।

पर सन 2006 में किए गए अध्ययन के अनुसार नदी का भूमि छूने का क्षेत्र सत्तावन फीसद बढ़ कर 6080 वर्ग किलोमीटर हो गया। वैसे तो नदी की औसत चैड़ाई 5.46 किलोमीटर है, लेकिन कटाव के चलते कई जगह ब्रह्मपुत्र का पाट पद्रह किलोमीटर तक चौड़ा हो गया है। 2001 में कटाव की चपेट में 5348 हेक्टर उपजाऊ जमीन आई थी, जिसमें 227 गांव प्रभावित हुए और 7395 लोगों को विस्थापित होना पड़ा था।

सन 2004 में यह आंकड़ा 20724 हेक्टर जमीन, 1245 गांव और 62,258 लोगों के विस्थापन पर पहुंच गया। 2010 से 2015 के बीच नदी के बहाव में 880 गांव पूरी तरह बह गए, जबकि 67 गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए। ऐसे गांवों का भविष्य अधिकतम दस साल आंका गया है। वैसे असम की लगभग पचीस लाख आबादी ऐसे गांवों में रहती है, जहां हर साल नदी उनके घर के करीब आ रही है।

ऐसे इलाकों को यहां ‘चार’ कहते हैं। इनमें से कई नदियों के बीच के द्वीप भी हैं। हर बार ‘चार’ के संकट, जमीन का कटाव रोकना, मुआवजा, पुनर्वास चुनावी मुद्दा भी होते हैं, लेकिन यहां बसने वाले किस कदर उपेक्षित हैं इसका इससे लगाया जा सकता है कि यहां की सड़सठ प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। तिनसुकिया से धुबरी तक नदी के किनारे जमीन कटाव, घर-खेत की बर्बादी, विस्थापन, गरीबी और अनिश्चिता की बेहद दयनीय तस्वीर है। कहीं लोगों के पास जमीन के कागजात हैं, तो जमीन नहीं। कहीं बाढ़-कटाव में उनके दस्तावेज बह गए और वे नागरिकता रजिस्टर में ‘डी’ श्रेणी में आ गए। इसके चलते आपसी विवाद, सामाजिक टकराव भी गहरे तक दर्द दे रहा है।

सन 1988 से 2015 तक कटाव की सीमा का आकलन करने के लिए, 2016 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड द्वारा सेटेलाइट इमेजरी से नदी के किनारों का अध्ययन किया गया था। इस अध्ययन से पता चला कि पानी के साथ बह कर आई मिट्टी केवल 208 वर्ग किलोमीटर थी, जबकि इसकी धार से 798 वर्ग किमी का क्षरण हुआ है। इस तरह एकत्र मिट्टी का कोई तात्कालिक इस्तेमाल भी नहीं होता- न इस पर बस्ती बना सकते हैं न ही खेती कर सकते हैं, क्योंकि यह बहुत दलदली होती है।

सन 1950 के सर्वाधिक विध्वंसक भूकंप के बाद ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के बहाव में अंतर आया और इतना भयानक कटाव हुआ था कि तिनसुकिया जिले का ऐतिहासिक सदिया शहर पूरी तरह समाप्त गया।

1954 में, डिब्रूगढ़ और पलासबाड़ी कस्बों का एक बड़ा हिस्सा ब्रह्मपुत्र द्वारा नष्ट कर दिया गया था। सन 2010 के बाद तो डिब्रूगढ़ के कई गांव पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं। दुनिया के सबसे बड़े नदी-द्वीप माजुली का अस्तित्व ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के कटाव के चलते खतरे में है। माजुली का क्षेत्रफल पिछले पांच दशक में 1250 वर्ग किमी से सिमट कर 800 वर्ग किमी रह गया है।

इसमें कोई शक नहीं कि असम की भौगोलिक स्थिति जटिल है। उसके पड़ोसी राज्य पहाड़ों पर हैं और वहां से नदियां तेज बहाव के साथ नीचे की तरफ आती हैं। असम की ऊपरी अपवाह में कई बांध बनाए गए। चीन ने ब्रह्मपुत्र पर कई विशाल बांध बनाए हैं। इन बांधों में जब कभी जल का भराव अधिक हो जाता है, तो पानी को अनियंत्रित तरीके से छोड़ दिया जाता है। इस तरह इसकी गति बहुत तेज होती है और उससे जमीन का कटाव होता है। भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि असम में नदी के कटाव को रोकने के लिए बनाए गए अधिकांश तटबंध जर्जर हैं और कई जगह पूरी तरह नष्ट हो गए हैं।

भूमि कटाव का बड़ा कारण राज्य के जंगलों और आर्द्र्र भूमि पर हुए अतिक्रमण भी हैं। सभी जानते हैं कि पेड़ मिट्टी का क्षरण रोकते हैं और बरसात को भी सीधे धरती पर गिरने से बचाते हैं। आर्द्र्र भूमि बड़े स्तर पर नदी के जल-विस्तार को सोखती थी। राज्य के हजारों पुखरी-धुबरी नदी से छलके जल को साल भर सहेजते थे। दुर्भाग्य है कि ऐसे स्थानों पर अतिक्रमण की प्रवृत्ति बढ़ी है, इसलिए नदी को अपने ही किनारे काटने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखा। नगांव जिले के कलियाबार ब्लाक के हाथीमूरा, सीलडूबी, कुकुरकोटा आदि इलाकों में जमीन कटाव की गति लगभग दो किलोमीटर प्रतिदिन है। अगर कटाव इसी रफ्तार से जारी रहा तो बह्मपुत्र का पानी जल्दी ही सीलडूबी में प्रवेश कर जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो नगांव जिले को बाढ़ से बचाने वाले हाथीमुरा बांध का टूटना तय है। यही नहीं, कलंग नदी की जल धाराएं भी नगांव के लिए खतरा बनी हुई हैं।

भूवैज्ञानिक माणिक कर के अनुसार 1997 में दुर्गा पूजा के समय कलंग नदी में अचानक बाढ़ आने की घटना भूक्षरण का ही परिणाम थी, लेकिन उस समय किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था। चूंकि जल के निचले हिस्से में हर रोज पांच-छह भूकंप के झटके आ रहे हैं, इसलिए कटाव की समस्या और गंभीर हो रही है। अब सातालमाटी, भोजखोबा, चापरी आदि में भी नए कटाव देखे जा रहे हैं।ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी। बोर्ड ने ब्रह्मपुत्र और बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी। केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा है और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देश के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से है। इन महकमों ने इस दिशा में अभी तक क्या कुछ किया, वह असम के आम लोगों तक अब तक पहुंचा नहीं है।

असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप और भूमि क्षरण से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध और तटबंधों की सफाई तथा नए बांधों का निर्माण जरूरी है। मगर सियासती खींचतान के चलते ब्रह्मपुत्र की लहरों का कहर जैसे वहां की नियति बन चुका है। आज जरूरत है कि असम की नदियों में ड्रेजिंग के जरिए गहराई को बढ़ाया जाए। इसके किनारे से रेत खनन पर रोक लगे। सघन वन भी कटाव रोकने में मददगार होंगे।



गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

Traditional fish species are disappearing from Ganga

 गंगा से गायब होती देषी मछलियां

पंकज चतुर्वेदी 



भारत की सबसे बड़ी नदी और दुनिया की पांचवीं सबसे लंबी नदी गंगा भारत के अस्तित्व, आस्था और जैव विविधता की पहचान है। नदी केवल जल की धारा नहीं होती, उसका अपना तंत्र होता है जिसमें उसके जलचर सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। गंगा-जल की पवित्रता को बरकरार रखने में उसके जल में लाखो साल से पाई जाने वाली मछलियों-कछुओं की अहम भूमिका है। जहां सरकार इसकी जल-धारा को  स्वच्छ बनाए रखने के लिए हजारों करोड़ की परियोजना का क्रियान्वयन कर रही है वहीं यह बहुत ंभी चेतावनी है कि गंगा में मछली की विविधता को खतरा पैदा हो रहा है और 29 से अधिक प्रजातियों को खतरे की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। जान लें इसमें 143 किस्म की मछलियां पाई जाती हैं। 



हालांकि अप्रैल 2007 से मार्च 2009 तक गंगा नदी में किए गए एक अध्ययन में 10 प्रजाति की विदेषी मछलियां मिली थीं। अंधाधुंध और अवैध मछली पकड़ने, प्रदूषण, जल अमूर्तता, गाद और विदेशी प्रजातियों के चलते मछलियों की पारंपरिक प्रजातियों पर खतरा पैदा हो गया है। पिछले दिनों वाराणसी में रामनगर के रमना से होकर गुजरती गंगा में डाल्फिन के संरक्षण के लिए काम कर रहे समूह को एक ऐसी विचित्र मछली मिली जिसका मूल निवास हजारों किलोमीटर दूर दक्षिणी अमेरिका में बहने वाली अमेजान नदी है। चूंकि गंगा का जल तंत्र किसी भी तरह से अमेजान से संबद्ध है नहीं तो इस सुंदर सी मछली के मिलने पर आष्चर्य से ज्यादा चिंता हुई। हालांकि दो साल पहले भी इसी इलाके में ऐसी ही एक सुनहरी मछली भी मिली थी। सकर माउथ कैटफिश नामक यह मछली पूरी तरह मांसाहारी है और जाहिर है कि यह इस जल-क्षेत्र के नैसर्गिक जल-जंतुओं का भक्षण करती है। इसका स्वाद होता नहीं , अतः ना तो इसे इंसान खाता है और ना ही बड़े जल-जीव, सो इसके तेजी से विस्तार की संभावना होती है। यह नदी के पूरे पर्यावरणीय तंत्र के लिए इस तरह हानिकारक है कि नमामि गंगे परियोजना पर व्यय हजारों करोड़ इसे बेनतीजा हो सकते है।


 हालांकि गंगा नदी पर मछलियों की कई प्रजातियांे के गायब होने का खतरा कई साल पुराना है और यह उद्गम स्थल पहाड़ों से ही षुरू हो जाता है। गंगा की अविरल धारा में बाधा बने बांध मछलियों के सबसे बड़े दुष्मन हैं। गंगा नदी से मछलियों की कई प्रजातियां गायब हो रही हैं। पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी इलाकों में पानी के साथ आने वाली मछलियों की कई प्रजातियां ढूंढे नहीं मिल रही। हम सभीजानते हैं कि गंगा को उत्तरांचल में कई जगह बांधा गया है और ये बांध सीमेंट से निर्मित हैं। सीमेंट की दीवारों पर काई जम जाती है। इसके फलस्वरूप मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है जो विभिन्न मछलियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रही है। बांधों से नदी का चेहरा बदल जाता है। इनके कारण बहाव अवरूद्ध होता है व पानी ताजा नहीं रहता।  साथ ही कीटनाशक नदी के पानी में घुल रहे हैं। इससे रीठा, बागड़, हील समेत छोटी मछलियों की 50 प्रजातियां गायब हो गई हैं। मछलियों की प्रजातियों को बचाने के लिए जरूरी है कि मछलियां सुरक्षित प्रजनन के लिए नैसर्गिक पर्यावास विकसित किए जाएं । जान लें जैव विविधता के इस संकट का कारण हिमालय पर नदियों के बांध तो हैं ही, मैदानी इलाकें में तेजी से घुसपैठ कर रही विदेषी मछलियों की प्रजातियां भी इनकी वृद्धि पर विराम लगा रही हैं।


गंगा के लिए खतरा बन रही विदेषी मछलियों की आवक का बड़ा जरिया आस्था भी है। विदित हो हरिद्वार में मछलियां नदी में छोड़ने को पुण्य कमाने का जरिया माना जाता है। यहां कई लोग कम दाम व सुंदर दिखने के कारण विदेषी मछलियों को बेचते हैं। इस तरह पुण्य कमाने के लिए नदी में छोड़ी जाने वाली यह मछलियां स्थानीय मछलियों और उसके साथ गंगा के लिए खतरनाक हो जाती हैं।  गंगा में देसी मछलियों की संख्या करीब 20 से 25 प्रतिशत तक हो गई है जिसकी वजह ये विदेशी मछलियां हैं। हरिद्वार में यह मछलियां सस्ते दाम पर मिल जाती हैं, इसलिए लोग विदेशी प्रजाति की मछलियां खरीदकर गंगा नदी में छोड़ देते हैं ,लेकिन पुण्य कमाने के लिए नदी में छोड़ी जाने वाली यह मछलियां स्थानीय मछलियों के अस्तित्व के लिए खतरा बन चुकी हैं। उन्होंने बताया कि विदेशी प्रजाति की मछलियों की तादाद तेजी से बढ़ती है। आकार में भी स्थानीय मछलियों के मुकाबले विदेशी मछलियां कहीं बड़ी होती हैं। मत्स्य पालन के लिए यह उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन नदी में चले आने से इनके और भी कई नुकसान होते हैं। ये मछलियां कारखानों से नदी में आने वाले विषैले पदार्थों को भी खा जाती हैं जिससे इन मछलियों को आहार के तौर पर खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है।


गंगा और इसकी सहायक नदियों में पिछले कई वर्षों के दौरान  थाईलैंड, चीन व म्यांमार से लाए बीजों से मछली की पैदावार बढ़ाई जा रही है। ये मछलियां कम समय में बड़े आकार में आ जाती हैं और मछली-पालक अधिक मुनाफे के फेर में इन्हें पालता है। हकीकत में ये मछलियां स्थानीय मछलियों का चारा हड़प करने के साथ ही छोटी मछलियों को भी अपना शिकार बना लेती हैं। इससे कतला, रोहू और नैन जैसी देसी प्रजाति की मछलियों के अस्तित्व के लिए खतरा खड़ा हो गया है। किसी भी नदी से उसकी मूल निवासी जलचरों के समाप्त होने का असर उसके समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर इतना भयानक होता है कि जल की गुणवत्ता, प्रवाह आदि नश्ट हो सकते हैं। मछली की विदेशी प्रजाति खासकर तिलैपिया और थाई मांगुर ने गंगा नदी में पाई जाने वाली प्रमुख देसी मछलियों की प्रजातियों कतला, रोहू और नैन के साथ ही पड़लिन, टेंगरा, सिंघी और मांगुर आदि का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है। 



जानकारी के अभाव में गरीब लोग थाई मांगुर और तिलैपिया मछली का भोजन करते हैं क्योंकि बहुतायत में पैदा होने के चलते इन मछलियों का बाजार भाव कम है। वहीं दूसरी ओर, देसी मछलियों की तादाद कम होने से इनके भाव ऊंचे हैं जिससे ये सभ्रांत परिवारों की थाली की शोभा बढ़ा रही हैं।  थाई मांगुर और तिलैपिया प्रजाति की मछलियां साल में कई बार प्रजनन करती हैं इसलिए इन मछलियों पर नियंत्रण पाना एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई है। वहीं फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से हिलसा मछली एक बड़ी आबादी की पहुंच से बाहर हो गई है क्योंकि यह मछली उत्तर भारत में नहीं आ पाती और हुबली नदी तक ही सीमित होकर रह गई है।



विदेशी आक्रान्ता मछलियों में चायनीज कार्प की कुछ प्रजातियाँ प्रमुखतः कामन कार्प और शार्प टूथ अफ्रीकन कैट फिश यानि विदेशी मांगुर और अब नए रंगरूट के रूप में अफ्रीका मूल की  टिलैपिया  है जो वंश विस्तार के मामले में सबसे खतरनाक है .आज स्थति यह है कि आप कोई भी छोटा जाल गंगा में डाले तो किसी टिलैपिया के आने की संभावना नब्बे  प्रतिशत है और किसी भी देशी मछली की महज दस या उससे भी कम! जाहिर  है देशज मत्स्य संपदा एक घोर संकट की ओर बढ रही है -यह किसी  राष्ट्रीय संकट से कम नहीं है -गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा भी जो दिया जा चुका है!

वैसे गंगा में सकर माउथ कैट फिष जैसी मछलियां  मिलने का मूल कारण घरों में सजावट के लिए पाली गई मछलियां हैं। चूंकि ये मछलियां दिखने में ंसुदर होती हैं साम सजावटी मछली के व्यापारी इन्हें अवैध रूप से पालते हैं।  कई तालाब, खुली छोड दी गई खदानों व जोहड़ों में ऐसे मछलियों के दाने विकसित किए जाते हैं और फिर घरेलू एक्वैरियम टैंक तक आते हैं। बाढ़, तेज बरसात की दषा में ये मछलियां अपने दायरों से कूद कर नदी-जल धारा में मिल जाती हैं वहीं घरों में ये तेजी से बढ़ती हैं व कुछ ही दिनों में घरेलू एक्वैरियम टैंक इन्हें छोटा पड़ने लगता हैं। ऐसे में इन्हें नदी-तालाब में छोड़ दिया जाता हैं। थोड़ी दिनों में वे धीरे-धीरे पारिस्थितिक तंत्र घुसपैठ कर स्थानीय जैव विविधता और अर्थव्यवस्था को खत्म करना शुरू कर देती हैं। चिंता की बात यह है कि अभी तक किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में ऐसी आक्रामक सजावटी और व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण मछली प्रजातियों के अवैध पालन, प्रजनन और व्यापार पर कोई मजबूत नीति या कानून नहीं है।

 

 


सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

how-will-the-air-of-delhi-be-clean-pankaj-chaturvedi-is-raising-questions

 कैसे साफ होगी दिल्ली की हवा? पंकज चतुर्वेदी उठा रहे हैं सवाल



थोड़ी-सी ठंड लगी कि दिल्ली में प्रदूषण, हवा के जहरीले होने, उसके निदान पर चर्चा होने लगी। हालांकि इसी साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकारा था कि 15 नवंबर, 2019 को दिए गए निर्देश के बावजूद ‘स्मॉग टॉवर' क्यों नहीं लगाए गए। उसके बाद सरकार ने ऐसी संरचनांए स्थापित करने का प्रचार शुरू कर दिया। यह जानना जरूरी है कि तकनीक से हवा को साफ रखने की कवायद महज तात्कालिक निदान है, यदि वास्तव में दिल्ली-एनसीआर की ढाई करोड़ आबादी के स्वास्थ्य की फिक्र करना है, तो प्रदूषण से निबटने के बजाय प्रदूषण कम करने के तरीकों पर विचार ही करना होगा। सुप्रीम कोर्ट हर मर्ज की दवा नहीं और अदालत खुद इतनी बड़ी तकनीकी विशेषज्ञ भी नहीं कि वर्षों की गलत नीतियों के कारण गैस चैंबर बन गई राजधानी को स्वच्छ हवा देने का कोई जादुई नुस्खा बताए। 


पिछले साल ठंड में सुप्रीम कोर्ट ने जापान की हाईड्रोजन आधारित तकनीक, बीजिंग की तरह जहरीली हवा खींचने वाले टॉवर का निर्माण, एयर प्यूरीफायर जैसी तकनीकों के इस्तेमाल के सुझाव दे दिए। कई बार लगता है कि प्रदूषण व उसके निवारण का सारा खेल एक व्यवसाय से ज्यादा है नहीं। कुछ कंपनियों के छद्म प्रतिनिधि शीर्ष अदालतों में ऐसे ही प्रस्ताव देते हैं, ताकि उनके क्लाईंट को व्यवसाय की संभावना मिल सके। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड़ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुंए की 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं, जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद और केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान द्वारा हाल ही में किए गए एक सर्वे से पता चला है कि दिल्ली की सड़कों पर लगातार जाम व वाहनों के रेंगने से गाड़ियां डेढ़ गुना ज्यादा इंधन पी रही हैं। जाहिर है कि उतना ही अधिक जहरीला धुआं हवा में शामिल हो रहा है। 

वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलकान दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोन इंसान के शरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है। पेट्रो पदार्थों को रिफायनरी में शोधित करते समय सबसे अंतिम उत्पाद होता है-पैटकॉन। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होने के चलते दिल्ली व करीबी इलाके के अधिकांश बड़े कारखाने में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है, उससे दोगुना पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं। 

दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही भी है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। भले ही सरकार कहती हो कि दिल्ली में ट्रक घुस ही नहीं रहे, लेकिन हकीकत जांचने के लिए गाजियाबाद से रिठाला जाने वाली मेट्रो पर सवार हों और राजेन्द्र नगर से दिलशाद गार्डन तक महज चार स्टेशनों के रास्ते में बाहर की ओर झांके, तो जहां तक नजर जाएगी- ट्रक खड़े मिलेंगे। कहा जाता है कि ज्ञानी बार्डर के नाम से मशहूर इस ट्रांसपोर्ट नगर में हर दिन दस हजार तक ट्रक आते हैं।


सरकारी कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेश देने, एक ही कालेानी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता है। यदि दिल्ली की हवा को वास्तव में निरापद रखना है, तो यहां से भीड़ कम करना, यातायात प्रबंधन, कूड़ा निबटान, ई व मेडिकल कचरे को जलाने से रोकने जैसे निदान कारगर हैं। स्मॉग टॉवर उन चुनावी वादों की

तरह लुभावना है, जो क्रियान्वयन तक अपनी उम्मीदें गंवा देते हैं। 


Download Amar Ujala App for Breaking News in Hindi & Live Updates. https://www.amarujala.com/channels/downloads?tm_source=text_share

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

CLIMATE CHANGE IS MAIN CHALLENGE FOR INDIAN AGRICULTURE

 


और भी कई चुनौतियां हैं किसानी के सामने

                                                                                                                                      पंकज चतुर्वेदी




खेती-किसानी को लाभ का काम बनाने के इरादे से संसद में पास हुए तीन बिल के बाद पूरे देश में किसान आंदोलन खड़ा हो रहा है। हकीकत यह है कि खेती के बढते खर्चे, फसल का माकूल दाम ना मिलने, किसान-उपभोक्ता के बीच कई-कई बिचौलियों की मौजूदगी, फसल को सुरक्षित रखने के लिए गोडाउन व कोल्ड स्टोरेज और प्रस्तावित कारखाने लगाने और उसमें काम करने वालों के आवास के लिए जमीन की जरूरत पूरा करने के वास्ते अन्न उगाने वाले खेतों को उजाड़ने जैसे विशयों पर तो बहुत चर्च हो रही है, लेकिन भारत में खेती के समक्ष सबसे खतरनाक  चुनौती - जलवायु परिवर्तन और खेती का घटता रकवे पर कम ही विमर्श  है। अब बहुत देर नहीं है जब किसान के सामने बदलते मौसम के कुप्रभाव उसकी मेहनत और प्रतिफल के बीच खलनायक की तरह खड़े दिखेंगें। हालांकि बीते कुछ सालों में मौसम का चरम होना-खासकर अचानक ही बहुत सारी बरसात एक साथ हो जाने से खड़ी फसल की बर्बादी किसान को कमजोर करती रही है। 

कृषि  मंत्रालय के  भारतीय कृषि   अनुसंधन परिशद का एक ताजा शोध  बताता है कि सन 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यम्भावी  है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। जान लेंकि तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है।  इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दषक में ही उपज घटने, पशु  धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है। तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बैमौसम व असामान्य बारिश , तीखी गर्मी व लू, बाढ़ व सुखाड़ की सीधी मार किसान पर पड़ना है।  तक अभी तक गौण हैं। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि खेती पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या भले ही घटे, लेकिन उनकी आय का दायरा सिमटता जा रहा है। सनद रहे कभी सूखे तो कभी बरसात की भरमार से किसान दशको तक उधार में दबा रहता है और तभी वह खेती छोड़ने को मजबूर है। । 



देष की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृषि  है और कोरोना संकट में गांव-खेती-किसानी ही अर्थ व्यवस्था की उम्मीद बची है। आजादी के तत्काल बाद देश  के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिषत थी  जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत  हो गई हे। यहां गौर करने लायक बात यह है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी। जाहिर है कि खेती-किसानी करने वालों का मुनाफा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनों-दिन जर्जर होती जा रही ।

कृषि  प्रधान कहे जाने वाले देष में किसान ही कम हो रहे हैं। सन 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई। वर्ष-2001 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की कुल संख्या 12 करोड 73 लाख थी जो 2011 में घटकर 11 करोड़ 88 लाख हो गई। आज भले ही हम बढिया उपज या आयात के चलते खाद्यान्न संकट से चिंतित नहीं हैं, लेकिन आनेवाले सालों में यही स्थिति जारी रही तो हम सुजलाम-सुफलाम नहीं कह पाएंगे। कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो देशभर में जुताई का क्षेत्र घट रहा है। 



भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति , जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देष है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है।  लेकिन पानी बचाने और कुपोशण व भूख से निबटने की चिंता पूरे देष में एकसमान है। हमारे देष में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी खेती में खर्च हो रहा है। तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दषकों से झेल ही रहा है। प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंस नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी, बाजरा और जई जैसे फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है।कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है और इस सन्दर्भ में । उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं। भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता। डॉ कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा।

इसरो द्वारा इसी साल प्रस्तुत ‘मरूभूमि विस्तार और भूमि क्षति एटलस’ की चर्चा भी प्रारंगिक है जिसके मुताबिक एक ओर भारत की कुल कृषि भूमि का 30 प्रतिशत हिस्सा पानी की कमी के चलते बंजर होने की कगार पर है तो वहीं, दूसरी ओर चौथाई हिस्सा अंधाधुंध वन कटान झेल रहा है। वर्ष 2003-05 से 2011-13 के बीच मरूभूमि में तब्दील होने की दर और कृषि योग्य भूमि में कमी का स्तर काफी बढ़ा हुआ साफ दिखाई दिया 

देष के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेष में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हैक्टर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांष अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों, खाद्य सुरक्षा और भोजन के दाम में वृ़िद्ध होती है। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।

किसान  केवल बाजार या मंडी या फिर जमीन नहीं है। यह सभी स्वीकारते हैं कि पहले भी खेत को बाजार बना कर उसमें अंधाधुंध रासायनिक खाद व दवा लगा कर जमीन व फसल का नुकसान हो चुका है। अब जलवायु परिवर्तन जैसी विकराल छाया से खेत व किसान को बचाने के लिए खेती के पारंपिरक तरीकों, फसल में बदलाव और सबसे बड़ी बात किसान को इस खतरे के प्रति जागरूक बनाना समय की मांग है। 


सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

Changing climate chock Delhi Respire

 तापमान परिवर्तन पर दम घुटता है दिल्ली का

पंकज चतुर्वेदी










दिल्ली में ये मौसम बदलने के दिन हैं, दिन में तीखी गरमी और अंधेरा होते-होते तापमान गिर जाता है। भले ही इन दिनों रास्ते में धुंध के कारण कम दृश्यता के हालात न हों, भले ही स्मॉग के भय से आम आदमी भयभीत ना हो, लेकिन जान लें कि जैसे जैसे आसपास के राज्यों में खेती के अपशिश्ठ या पराली जलाने में तेजी आ रही है साथ ही दिन में सूर्य की तपन बढ़ रही है, दिल्ली की सांस अटक रही है। दिल्ली में प्रदूशण का स्तर अभी भी उतना ही है जितना कि डेढ महीने बाद सर्दियों में धुंध के दौरान होगा। यही नहीं इस समय की हवा ज्यादा जहरीली व जानलेवा है। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड्ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुंए से 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि। विडंबना है कि जब ठंड के दिनों में धुंध छाती है तो सरकार इसे गंभीर पर्यावरणीय संकट मानती है और सारा ठीकरा पराली जलाने पर थोप देती है जबकि हकीकत यह है कि आज भी राजधानी की हवा उतनी ही विशैली है।

एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लख टन पराली या अवशेश जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाय आक्साईड, तीन किलो ठोस कण या पीपी, 60 किलो कार्बन मोनो आक्साईड, 1460 किलो कार्बन डाय आक्साईड और 199 किलो राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवशेश जलते है तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेशान दिल्ली वालों के फैंफडों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदूशण से भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते है।, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और धनत्व का पता लगाने की कोई तकनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है लेकिन जैसे ही मानसून के दौरान हवा में नमी का स्तर बढ़ता है। तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है।  यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजोन लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है परागण के शिकार लेागों के फैंफडे  ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं। तभी ठंड षुरू होते ही दमा के मरीजों का दम फूलने लगता है और कई बार इससे दिल तक असर पड़ जाता है। इस बार तो कोरोना का वायरस जिस तरह अभी भी अबुझ पहेली है और उसका प्रसार तेजी से हो रहा है, वायू प्रदूशण बढ़ने पर इसका कहर भयंकर हो सकता है।

यह तो सभी जानते हैं कि गरमी के दिनों में हवा एक से डेढ़ किलोमीटर ऊपर तक तेज गति से बहती है। इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लेागों को सांस लेने में बाधक बनती है। मानकों के अनुसार पीएम की मात्रा 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर वायू होना चाहिए, लेकिन अभी तो पारा 37 के करीब है और यह खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहंुच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण दिल्ली में विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ व अनियोजित निर्माण कार्य भी हैं, जिनसे असीमित धूल तो उड़ ही रही है , यातायात जाम के दिक्कत भी उपज रही है। अकेले सराय काले खां का जाम इस समय दिल्ली की आवोहवा का दुश्मन बना हुआ है। बारापूला, महारानी बाग से ले कर नोएडा मोड़ तक घिसटते यातायात के चलते हवा में पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग।

वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिशद(सीएसआईआर) और केंद्रीय सड़क अनुसंधन संस्थान द्वारा हाल ही में दिल्ली की सड़कों पर किए गए एक गहन सर्वे से पता चला है कि दिल्ली की सड़कों पर लगातार जाम व वाहनों के रंगने से गाड़िया डेढ़ गुना ज्यादा इंधन पी रही हैं। जाहिर है कि उतना ही अधिक जहरीला धुओं यहां की हवा में षामिल हो रहा है। ठीक ठाक बरसात होने के बावजूद दिल्ली के लोग बारीक कणों से हलकान है तो इसका मूल कारण वे विकास की गतिविधियां हैं जो बगैर अनिवार्य सुरक्षा नियमों के  संचालित हां रही है। कोरोना-काल में भले ही कुछ महीनों हवा की गुणवत्ता सुधरी थी लेकिन जैसे ही जिंदगी पटरी पर आई, आज भी हर घंटे एक दिल्लीवासी वायु प्रदुशण का शिकार हो कर अपनी जान गंवा रहा है। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतरराश्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। ‘

यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलाकांत दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुंएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के षरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है । इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी । वायू प्रदूशण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। जब पेट्रो पदार्थों को रिफायनरी में षांधित किया जाता है तो सबसे अंतिम उत्पाद होता है - पैटकॉन,। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। चूंकि इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होते है। सो दिल्ल्ी राजधानी क्षेत्र के अधिकांश बड़े कारखाने अपनी भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।

यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। इस मौसम में निर्माण कार्यो पर धूल नियंत्रण, सड़कों पर जाम लगना रोकने के साथ-साथ पानी का छिड़काव जरूरी है। जबकि परागण से होने वाले नुकसान से बचने का एकमात्र उपाय इसके प्रति जागरूकता व संभावित प्रभावितों को एंटी एलर्जी दवाएं देना ही है। साथ ही दिल्ली में सार्वजनिक स्थानों पर किस तरह के पेड़ लगाए जाएं, इस पर भी गंभीरता से विचार करना होगा।


Why Not peace talk with naxal ?

 आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ?

पंकज चतुर्वेदी




धुंआधार बरसात से धुले-पुछे, हरियाली व मिट्टी की ंगध से महक रहे बस्तर के अरण्यों में यह चर्चा तेजी से फैल रही है कि गणपति समर्पण करने वाला है, गणपति  यानी बीते तीन दशकों से चार राज्यों में नक्सली नेतृत्व  का सबसे बड़ा नाम। बीते दो सालों में बस्तर में कई बड़े नक्सली या तो मारे गए या फिर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। उधर सरकार की स्थनीय लोगों को फोर्स मे भर्ती करने की योजना भी कारगर रही। एक तो स्थानीय लोगों को रेाजगार मिला, दूसरा स्थानीय जंगल  के जानकार जब सुरक्षा बलों से जुडे तो अबुझमाड़ का रास्ता इतना अबुझ नहीं रहा। तीसरा जब स्थानीय  जवान नक्सली के हाथों मारा गया और उसकी लाख गांव-ओटले  में पहुंची तो ग्रामिनिं का रोष  नक्सलियों पर बढ़ा। एक बात जान लें कि दंडकारण्य में नक्सलवाद महज फेंटेसी, गुंडागिर्दी या फैशन नहीं है । वहां  खनज और विकास के लिए जंगल उजाड़ने व पारंपरिक जनजाति संस्कारों पर खतरे तो हैं और नक्सली अनपढ़- गरीब आदिवासियों में यह भरोसा भरने में समर्थ रहे है। कि उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई के लिए ही उन्होंने हथियार उठाए हैं। यह भी कड़वा सच है कि नक्सलविरोधी कार्यवाही में बड़ी संख्या में निर्दोष  लोग भी जेल में हैं व कई मारे भी गए, इसी के चलते अभी सुरक्षा बल आम लोगों का भरोसा जीत नहीं पाए हैं। लेकिन यह सटीक समय है जब नक्सलियों को बातचीत के लिए झुका कर इस हिंसा का सदा के लिए अंत कर दिया जाए। 

बस्तर में लाल-आतंक का इतिहास महज चालीस साल पुराना है। बीते बीस सालों में यहां लगभग 12 हजार लोग मारे गए जिनमें 2700 से अधिक सुरक्षा बल के लोग हैं जबकि षेश आम आदिवासी। बस्तर से सटे महाराश्ट्र, तेलंगाना, उड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश में इनका सश्क्त नेटवर्क है । समय-समय पर विभिन्न अदालतों में यह भी सिद्ध होता रहा है कि प्रायः सुरक्षा बल बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली बता कर मार देते है।। वहीं घात लगा कर सुरक्षा बलों पर हमले करना, उनके हथियार छीनना भी यहां की सुखिर्यों में है। ये सभी बेहद सुदर, मनोरम लेकिन वहां की हवा में बारूद की गंध तैरती है। हिसांब तो लगाया नहीं गया लेकिन बीते दो दशक के दौरान नक्सल प्रभावित राज्यों में कोई बीस हजार लेाग मारे जा चुके है।- इनमें सबसे ज्यादा आदिवासी हैं और फिर हैं सुरक्षा बलों के जवान। गोलियां दोनो तरफ से चलती हैं और इसकी चपेट में हर बार बेकसूर आदिवसी भी खूब आते हैं। दोनो पक्षों के पास अपनी कहानियां हैं- कुछ सच्ची और बहुत सी झूठी। 

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नक्सलियों का पुराना नेतृत्व अब कमजोर पड़ रहा है और नया कैडर अपेक्षाकृत कम  आ रहा है। ऐसे में यह खतरा बना रहता है कि कहीं जन मिलिशिया छोटे-छोटे गुटों में निरंकुश ना हो जाएं  असंगठित या छोटे समूहों का नेटवर्क तलाशना बेहद कठिन होगा। जान लें कि बस्तर अंचल का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर है और उसके बड़े इलाके में अभी भी मूलभूत सुविधांए या सरकारी मशीनरी दूर-दूर तक नहीं है। 



नक्सली कमजोर तो हुए हैं लेकिन अपनी हिंसा से बाज नहीं आ रहे। कई बार वे अपने अशक्त होते हालात पर पर्दा डालने के लिए कुछ ना कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनका आतंक कायम रहे। याद करें 21 अक्तूबर 2016 को न्यायमुर्ति मदन लौकुर और एके गोयल की पीठ ने फर्जी मुठभेड़ के मामले में राज्य सरकार के वकील को सख्त आदेश दिया था कि पुलिस कार्यवाही तात्कालिक राहत तो है लेकिन स्थाई समाधान के लिए राज्य सरकार को नागालैंड व मिजोरम में आतंकवादियों से बातचीत की ही तरह बस्तर में भी बातचीत कर हिंसा का स्थाई हल निकालना चाहिए। हालांकि सरकारी वकील ने अदालत को आश्वस्त किया है कि वे सुप्रीम कोर्ट की मंशा उच्चतम स्तर तक पहुंचा देंगे। लेकिन उसके बाद सरकार के स्तर पर ऐसे कोई प्रयास नहीं हुए जिनसे नक्सल समस्या के षांतिपूर्ण समाधान का कोई रास्ता निकलता दिखे। दोनो तरफ से खून यथावत बह रहा है और सुप्रीम कोर्ट के षब्द किसी लाल बस्ते में बंद हैं। 

सनद रहे बस्तर से भी समय-समय पर यह आवाज उठती रही है कि नक्सली सुलभ हैं, वे विदेश में नहीं बैठे हैं तो उनसे बातचीत का तार क्यों नहीं जोड़ा जाए। हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में सर्व आदिवासी समाज चिंता जताता रहा है कि अरण्य मे ंलगातार हो रहे खूनखराबे से आदिवासियों में पलायन बढ़ा है और इसकी परिणति है कि आदिवासियों की बोली, ंसस्कार, त्योहार, भोजन सभी कुछ खतरे में हैं। बात आई कि किसी भी स्तर पर नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें हथियार डाल कर देश की लोकतांत्रिक मुख्य धारा में षामिल होने के लिए क्यों राजी नहीं किया जा सकता और इसके लिए अभी तक कोई प्रयास क्यों नहीं हुए। 

बस्तर के हालात कितने गंीाीर हैं इसके लिए दो आंकड़े गौर करने वाले हैं - बस्तर की चार जेनलों में हजार से ज्यादा आदिवासी नक्सल हिंसा के आरोप में सालों से निरूद्ध हैं और इनमें से कई की तो कोई पैरवी भी नहीं। दूसरा - बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी। सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में षेश देश के विपरीत महिला-पुरूश का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियांे के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। 

अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की 14 साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। 

भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में षांति के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। प्रधानमंत्री निवास पर उन अलगाववादियों को बाकायदा बुलाा जाता है और उनके साथ हुए समझौतों को गोपनीय रखा जाता है जो दूर देश में बैठ कर भारत में जमक र वसूली, सरकारी फंड से चौथ वसूलने और गाहे-बगाहे सुरक्षा बलों पर हमला कर उनके हथियार लूटने का काम करते हैं। कश्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और उसमें पाकिस्तान पूरी तरह षामिल है। इसके बावजूद दबे-छुपे तो कभी जाहिरा तौर पर कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से षांतिपूर्ण हल की गुफ्तगु करती रहती है। फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोशिशें क्यों नहीं की गईं।  

हालांकि पूर्व में एक -दो बार बातचीत की कोशिश हुई लेकिन कहा जाता है कि इसके लिए जमीन तैयार करने वाले लोगों को ही दूसरे राज्य की पुलिस ने मार गिराया। कई बार लगता है कि कतिपय लोगों के ऐसे स्वार्थ निहित हैं जिनसे वे चाहते नहीं कि जंगल में षंाति हो। लेकिन यह भी सच है कि दुनिया की हर ंिहंसा का निदान अंत में टंबल पर इैठ कर षंाति से ही निकला है। 


How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...