अकेले पाठ्य पुस्तकों से नहीं सीखता बच्चा
पंकज चतुर्वेदी
चार साल पहले हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश की राजधानी में सरकारी स्कूल में पढने वाले 75 फीसदी बच्चे अपनी पाठ्य पुस्तक को ठीक से पढ नहीं पाते थें। पढ नहीं पाते हैं तो समझ नहीं पाते और समझ नहीं पाते तो उस पर अमल नहीं कर पाते। षायद यही कारण है कि कक्षा 10 के आते-आते इनमें से 40 प्रतिषत शिक्षा छोड़ देते हैं। उनके लिए स्कूल, पुस्तक, परीक्षा, डिगरी महज एक उबाऊ या रटने वाली गैर उत्पादक प्रक्रिया होती है व उसमें वे अपनी रोटी या भविश्य नहीं देखते। मामला यही नहीं रूकता, यही अल्प शिक्षित या अल्प शिक्षित लोग जब सरकार की योजनाओ को ठीक से पढ या समझ नहीं पाते हैं तो योजनाएं भ्रष्टाचार या कागजी आंकड़ों की षिकार हो जाती हैं।
वास्तव में शिक्षा प्रणाली, जिसमें पाठ्य पुस्तक भी शामिल है, का मौजूदा स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । एमए पास बच्चे जब बैक में पैसा जमा करने की पर्ची नहीं भर पाते या बारहवीं पास बच्चा होल्डर में बल्ब लगाना या साईकिल की चैन चढ़ाने में असमर्थ रहता है तो पता चलता है कि हम जो कुछ पढ़ा रहे हैं वह कितना चलताऊ है। कुल मिला कर स्कूल में पढे हुए के मूल्यांकन के तौर पर होने वाली परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है । लिखना, पढना, बोलना, सुनना - ये चारों क्रियाएं वैसे तो अलग-अलग हैं लेकिन वे एकदूसरे से जुड़ी हैं। एक दूसरे पर निर्भर हैं, एकदूसरे को उभारती हैं। एक अकेले शब्द का अर्थ अलग होता है, कुछ शब्द जुड़ कर जब एक वाक्य बनते हैं तो उनका अर्थ व्यापक हो जाता है। सरल भाषा वही है जो उपरोक्त चारों क्रियाओं में सहज हो।
अब बच्चा घर में अपनी देषज भाशा- बुंदेली, मालवी, ब्रज या राजस्थानी इस्तेमाल कर रहा है और स्कूल में उसे खड़ी बोली में पढाया जा रहा है। उसके बालने, समझने , सीखने व पढने की भाषा में जैसे ही भेद होता है , वह गड़बड़ा जाता है व पुस्तकों में अपनी ऊब को खड़ा पाता है। उदाहरण के तौर पर बच्चों को ई से ईख व ए से एैनक पढ़ाया जा रहा है जबकि वे ईख शब्द का इस्तेमाल करते नहीं, वे तो गन्ना कहते हंे या ऐनक नहीं चश्मा । अब बेहद गरीब परिवेश के ग्रामीण बच्चे, जिन्होंनंे कभी अनार देखा नहीं, उन्हें रटवाया जाता है कि अ अनार का। यह तो प्रारंभिक पुस्तक के स्वर वाले हिस्सों का हाल है, जब व्यजंन में जाएंगे तो ठठेरे, क्षत्रिय जैसे अनगिनत शब्द मिलेंगे।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है। भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्रभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है। अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत‘ उच्चारण करते हैं। बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
बच्चा ठीक से पढ सके, उसका आनंद उठाए और से समझ सके, इसके लिए सबसे पहले तो नीरस पुस्तकों को बदलना होगा, 12 या 16 पेज की रंगबिरंगी छोटी कहानी वाली, जिसमें साठ फीसदी चित्र हों, ऐसी पुसतकें बच्चों के बीच डाली जाएं, इस उम्मीद के सथ कि इसकी कोई परीक्षा नहीं होगी। उसके बाद पाठ्य पुस्तक हो, जिसमें स्थानीय परिवेष, पाठक बच्चों की पृष्ठभूमि आदि को ध्यान रख कर सकारात्मक सामग्री हो। चित्र की अपनी भाशा होती है और रंग का अपना आकर्षण , मनोरंजक कहानियां व चित्रों की मदद से बच्चे बहुत से षब्द चिन्हने लगते हैं और वे उनक इस्तेमाल सहजता से अपनी पाठय पुस्तक में भी करने लगते हैं। इससे सीखने व समझने की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। भाषा की लिपि को पहचानना और अर्थ ग्रहण करना , फिर उन शब्दों को दूसरी जगह चीन्हना, इस प्रणाली में बच्चे तेजी से पढ़ने की दक्षता हांसिल करते है।
असल में पढ़ना, लिखना या शब्द पहचानना बच्चे की समझ के विकास-चक्र का महत्वपूर्ण घुमाव है और उसे नीरस की पाठ्य पुस्तक के बदौलत छोड़ना महज एक शिक्षा की औपचारिकता पूरा करना है। अब समय की मांग है कि रटन्तू व्यवस्था को अलविदा कहा जाए। जैसे ही बच्चा सीखने, पहचानने और उसे डीकोड करने की पूरी प्रक्रिया को एक साथ अपना कर उसमें चुनौती व आनंद ढूंढने लगता है, शिक्षा उसके लिए एक रोमांच व कौतुहल बन जाती है। हो सकता है कि यह मौजूदा पाठ्यक्रम को समाप्त करने की अवधि में एमएसएल यानि मिनिमम लेबल आफ लर्निग या सीखने का न्यूनतम स्तर पाने की गति से कुछ धीमी प्रक्रिया हो, लेकिन यदि गाड़ी एक बार गति पकड़ लेती है तो फिर फर्राटे से दौड़ती है। बुजुर्ग निरक्षरों को पढ़ाने की पद्धति ‘आईपीसीएल’(इम्प्रूव्ड पेस आफ कन्टेंट एंड लर्निंग )इसकी सफलता की बानगी है।
विभिन्न ध्वनियों के बीच भेद व उसे लिखने में अंतर सीखने के लिए सुनने की बेहतर दक्षता विकसित करना अनिवार्य है और इस राह की बाधाओं को दूर करने में कहानी कहना या गैरपाठ्य पुस्तकों से चित्र, या कठपुतली या अन्य माध्यम के साथ कहानी कहना बेहद कारगर हथियार है। स या ष का भेद, तीन तरह की र की मात्रा का अनुप्रयोग व लेखन जैसी जटिलताएं सीखने में इस तरह की पुस्तकें व कहानियां रामबाण रही हैं। काष प्राथमिक स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का वजन कम कर , रटने की पारंपरिक प्रक्रिया से परे चित्र व षब्द का सम्मिलन कर अपनी कहानी गढने व समझने जैसी प्रक्रियाओं को अपनाया जाए तो पढने-समझने और सीखने की प्रक्रिया ना केवल आसान हो जाएगी, वरना बच्चों के लिए भी खेल -खेल में सीखने जैसी होगी। जान लें कि प्राथमिक कक्षाओं में सीखने की पहली कड़ी है सुनने व सहेजने की दक्षता का विकास। आमतौर पर इसे एकालाप मान लिया जाता है यानि षिक्षक कहेगा व बच्चा सुनेगा। जब सुनने की क्षमता के विकास के लिए संवाद की पद्धति अपनाई जाती है तो बच्चे में खुद को अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास होता है और यही पढने का प्रारंभ है।