कौन लेगा उपेक्षित समाज की सुध
यह सुनियोजित साजिश नहीं है कि समाज की स्वास्थ्य रक्षा व सफाई के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने वालों की खुद की बस्तियां गंदी, बदबूदार और कुप्रबंध की शिकार होती हैं। समय के साथ बदलते हालात में भले ही भंगी को सिर पर मैला ढोने से मुक्ति मिल रही हो, लेकिन गंदगी, मल से उसका पीछा नहीं छूटा है। गंदगी भरा ट्रक चलाना हो या गहरे जानलेवा सीवर की सफाई करना हो, सभी में उन्हीं लोगों को खपाया जा रहा है
पंकज चतुर्वेदी
आजादी के बाद से भंगी मुक्ति, सिर पर मैला ढोने पर पाबंदी सरीखे कई नारे सरकारी व गैरसरकारी संगठन लगाते रहे। मगर खुद केंद्र सरकार का यह आंकड़ा इन नारों की इछाशक्ति का खुलासा करता है कि देश में हजारों लोग अब भी हाथ से मैला उठाने की अमानवीय प्रथा से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। सनद रहे कि कोई चार साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस अनैतिक कार्य पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी थी, बावजूद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ऐसा अब भी 13 रायों में हो रहा है। सबसे बड़े राय उत्तर प्रदेश को केंद्र से इस मद में 175 करोड़ रुपये मिल चुके हैं। बावजूद इसके वहां देशभर के कुल 12,700 में से अभी भी 10,301 ऐसे सफाईकर्मी हैं जो सिर पर मैला ढोते हैं। यह जानकारी संसद में बाकायदा केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने एक प्रश्न के जवाब में दी है। इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ और शाहजहांपुर में हैं।
जनगणना में यह बात उभर कर आई थी कि यूपी में आज भी दो लाख ‘कमाऊ’ शौचालय हैं। इनका मल अपने सिर पर ढ़ोने वालों की सरकारी संख्या तो महज 10,301 है। केंद्र सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि कर्नाटक में 737, तमिलनाडु में 363, राजस्थान में 322, ओडिशा में 237, असम में 191 और बिहार में 137 लोग ऐसे हैं जो सिर पर लोगांे का मल ढोते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ी है। विचार यह भी करना चाहिए कि आखिर क्यों पूरे देश को झाड़ू हाथ में ले कर उतरने की नौबत आई, जबकि हमारे यहां सफाई कर्मचारियों की बस्तियां हर गांव-कस्बे में है। असल समस्या यह है कि सफाई का जिम्मा निभाने वाला समाज हर समय उपेक्षित रहा और हमारी जातिवादी व्यवस्था ने सफाई का काम एक जाति विषेश का जिम्मा मान कर अपना काम कूड़ा फैलाना समझा। वास्तविकता यह है कि भारतीय समाजिक संरचना में भंगी कभी जाति नहीं हुआ करती थी, यह कर्म था, लेकिन अब यह जाति बन गई वह भी पूरी तरह उपेक्षित। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कोई एक दर्जन जिलों में विस्तारित भूखंड बुंदेलखंड में सफाई के काम में लगे लोगों की जाति ‘बसोर’ कहलाती है। बसोर यानी बांस का काम करने वाले। वास्तव में अभी भी उनके घरों में बांस की टोकरियां, सूप आदि बनाने का काम होता है। अभी कुछ दशक पीछे ही जाएं तो पता चलता है कि बसोर बांस का बेहतरीन कारीगर हुआ करता था। आधुनिकता की आंधी में बांस की खपचियों की कला कहीं उड़ गई और उनके हाथ आ गए झाड़ू-पंजा। गुजरात की गाथा इससे अलग नहीं है, वहां भी बांस की टोकरी बनाने वालों को भंगी कहा जाता है। भंगी यानी जो बांस को भंग करे। गुजरात और महाराष्ट्र व सीमावर्ती मध्य प्रदेश में सफाई कर्मचारियों के उपनाम ‘वणकर’ हुआ करते हैं, यानी बुनकर। गौरतलब है कि अंग्रेजों के आने के बाद भारत में बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलें लगीं और इंग्लैंड से सस्ता कपड़ा आयात होने लगा। फलस्वरूप हथकरघे बंद होने लगे। जब कारखाने खुल रहे थे, तभी शहरीकरण हो रहा था। इन्ही हालातों के चलते बुनकर को ‘वणकर’ बनने पर मजबूर होना पड़ा। अंग्रेज समाजशास्त्री स्टीफन फ्यूकस के मुताबिक मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में जाति-धर्म परिवर्तन की तरह भंगी बनाने की बाकायदा प्रक्रिया होती है।
ऐसे ही कई उदाहरण देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं, जो इंगित करते हैं कि समाज के सर्वाधिक उपेक्षित इस वर्ग को ‘जाति’ कहना न्यायोचित नहीं है। मुगलकाल में महलों के शौचालय साफ करने के गुलामों को महतर बनाने व उन्हें किसी लाल बेगी नामक फकीर का चेला बताने के प्रमाण गवाह हैं कि सामंतों ने सुनियोजित साजिश के तहत एक पूरी बिरादरी अमानवीयता के धरातल पर खड़ी कर दी गई थी। प्रागैतिहासिक काल या उससे भी पहले की पौराणिक कथाओं की बात करें या अंग्रेजों के आगमन तक के इतिहास की, कहीं भी सफाई कर्मचारी नामक समाज का उल्लेख नहीं मिलता है। विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यताओं में से एक मोहन-जोदड़ों में जब सीवर प्रणाली के प्रमाण मिले हैं तो स्पष्ट है कि भारत में पहले साफ-सफाई समाज की साझा जिम्मेदारी हुआ करती थी न कि किसी समाज विशेष की। इस पेशे को पारंपरिकता से जोड़ना बेमानी होगा। सिर पर मैला ढुलाई का काम करवाना कानून की नजर में जुर्म है। यह कोई अकेला कानून नहीं है, जिसके दम पर सरकार मल साफ करने के अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा के निदान का दावा करती है। 1963 में मलकानी समिति ने सिफारिश की थी कि जो सफाई कामगार अन्य कोई नौकरी करना चाहे तो उन्हें चौकीदार, चपरासी आदि पद दे दिए जाएं। लेकिन उन सिफारिशों को सरकारी सिस्टम हजम कर चुका है। आज भी रोजगार कार्यालयों से महज जाति देख कर ग्रेजुएट बचों को सफाई कर्मचारी की नौकरी का परवाना भेज दिया जाता है। योजना आयोग ने 1989 में एक कार्य दल का गठन किया था, जिसने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास पर कई सुझाव दिए थे। पुनर्वास की राष्ट्रीय योजना की शुरुआत 1992 में हुई भी, लेकिन केवल कागजों पर। फिर 15 अगस्त 1994 को तत्कालीन प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के गठन की घोषणा की। इसके पहले अध्यक्ष मांगीलाल आर्य ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट 17 नवंबर 1995 को तब के समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी को सौंपी भी। लेकिन उस रिपोर्ट पर शायद ही कोई कार्यवाही हुई हो। इसके बाद आयोग के कई प्रधान बने और वे सफाई कर्मियों के प्रति कम और अपने निजी हितों के प्रति यादा जागरूक दिखे।
यह सुनियोजित साजिश नहीं है कि समाज की स्वास्थ्य रक्षा व सफाई के लिए अपना वर्तमान ही नहीं भविष्य भी दांव पर लगाने वालों की खुद की बस्तियां गंदी, बदबूदार और कुप्रबंध की शिकार होती हैं। दिल्ली से लेकर सुदूर कस्बे तक की वाल्मिकी बस्तियांे पर निगाह डालें, वहां ना तो पक्की सड़क होगी ना ही बिजली व पानी का माकूल इंतजाम। हां, बस्ती के बीचों-बीच या इर्द-गिर्द देशी शराब की दुकान अवश्य मिल जाएगी। नगर पालिका स्तर पर सफाई कर्मचारियों के लिए ‘ट्रांजिट होम’ बनाने का खर्च केंद्र सरकार देती है ताकि सफाई कर्मचारी अपने पेशे से निवृत्त हो कर वहां हाथ-पैर धो कर स्वछ हो सकें। लेकिन पूरे देश में ऐसे ट्रांजिट होम पर पालिका के वरिष्ठ अधिकारियों का कब्जा होता है। यहां तक कि सफाई कर्मचारियों को यह मालूम ही नहीं होता है कि उनके लिए ऐसी कोई व्यवस्था भी है। बदलते परिदृश्य में भले ही भंगी को सिर पर मैला ढोने से मुक्ति मिल रही हो, लेकिन गंदगी, मल से उसका पीछा नहीं छूटा है। गंदगी भरा ट्रक चलाना हो या गहरे जानलेवा सीवर की सफाई का काम, सभी में उन्हीं लोगों को खपाया जा रहा है।